कहानी मुन्ने की उमर हरि भटनागर आर्डर देने के बाद सात-आठ हाँक लगाने पर भी जब चाय नहीं आई तो उसका मूड आफ हो गया। चूने से रँजे उसके बदन म...
कहानी
आर्डर देने के बाद सात-आठ हाँक लगाने पर भी जब चाय नहीं आई तो उसका मूड आफ हो गया। चूने से रँजे उसके बदन में मिर्ची सी फैल गई। वैसे भी वह ग़ुस्से के लिए मशहूर था। बात-बात पर किसी से उलझ पड़ना समान्य-सी बात थी। मार-पिटाई हो जाना उससे भी सामान्य। होंठ चाबकर उसने गरदन झिटकी जिससे चूने का चूरा झरा, फिर चूने से बेतरह कटे हाथ को हिलती बेंच पर दे मारा। बेंच पर हाथ मारने से हाथ को कहाँ तक चोट लगी या वह कहाँ तक झन्नाया, इसका सही हवाला नहीं दिया जा सकता, क्योंकि अब वह मुट्ठी में तब्दील होता जा रहा था। लेकिन बेंच के बारे में ज़रूर कहा जा सकता है कि अपनी जगह से खिसक गई। जोड़ की दो-एक कीलें नीचे आ गिरीं और सबसे बड़ी बात यह कि उस पर रखे दो-चार गिलास अपनी जगह से उछले और लुढ़क पड़े। जब तक आस-पास बैठे लोग पकड़ने दौड़ते, गिलास फर्श पर गिरकर फूट चुके थे।
लेकिन इससे बेख़बर हसन पूरी तरह ग़ुस्से के हवाले हो चुका था। मुटि्ठयाँ लहराते हुए उसने चायवाले को भद्दी गालियाँ देना शुरू कर दी थीं। और यह कहकर चीखने लगा कि क्या फ्री-फण्ड की चाय देता है जो देर करता है....वगै़रह बहुत सारी बातें।
चायवाले को उसके बरताव पर लाल-पीला होना चाहिए। लेकिन नहीं, वह ज़रा भी लाल-पीला नहीं हुआ। न ही कुछ बोला। हसन को वह अरसे से जानता है। यही नहीं, चूने भट्ठे और घर में भी वह इसी तरह का बरताव करता है। चूने भट्ठे का मालिक भी उससे कुछ नहीं बोलता। फिर बीवी की क्या बिसात। कहते हैं एक बार बीवी ने पिटते वक़्त उसका गट्टा पकड़ लिया था तो उसने सिर पर गँडास पटक दिया था। पड़ौसी अस्पताल ले गए। टांके लगे, तब बची थी वह।
चायवाले ने होंठों में पता नहीं कब के बुझ चुके बीड़ी के ठुड्डे को फेंका और गिलास में चाय छानी और लड़के के हाथ भेजने के बजाय खुद लिए दौड़ा आया। यह कहते कि हसन भाई के लिए पेशल बना रहा था, इसलिए देर हुई।
गिलास से भाप उठ रही थी जिसका अहसास हसन को नाक पर हो रहा था, क्योंकि चायवाले ने गिलास उसकी नाक से सटा दिया था ताकि वह मुँह तक न हिला सके। वह तो पहले से गुस्से से बौखलाया था, चाय की भाप ने मानो उसके गुस्से को लौ दे दी। तिड़तिड़ाया हुआ वह एक दो डग पीछे हटा।
- चाय लो भाईजान, चाय! पेशल लाया हूँ, सिरफ़ तेरे लिए...
हसन ने उसके मुँह को देखा जिसमें चाय की भाप की तरह ये लफ़्ज निकलते जा रहे थे।
- गुस्से थूक दो मेरी जान। चायवाले ने मुस्कराते हुए जब ये लफ़्ज़ लिकाले तो हसन जलकर खा़क़ हो गया। साला ऐसे कह रहा है जैसे मैं कोई पतुरिया होऊँ। हत् तेरी....गाली देने के बाद उसने गिलास उसके हाथ से लिया और फर्श पर दे मारा। जब तक चायवाला चिल्लाता, हसन सपाटे से आगे लपका। इस चक्कर में वह एक स्टूल से टकरा गया। लड़खड़ाते हुए मुँह के बल गिरते-गिरते बचा। यह कहें एक आदमी ने उसे थाम लिया।
थामने वाले आदमी को हसन ने भद्दी गालियाँ दे डालीं क्योंकि वह उसे चायवाला जैसा ही नज़र आया।
चायवाले ने अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए अल्ला ताला से हसन पर रहम करने की दुआ मांगी। दुआ मांगते वक़्त वह इतना मशगूल हो गया कि पता ही नहीं चला कि खौलकर चाय कब बहने लगी। भट्ठी के बुझने और उसमें से उठते धुँए ने यकायक उसे चौंकाया। उसने फुर्ती से केतली उठाई। हैंडिल आँच की तरफ़ होने की वजह से लाल हो गया था। छौंछियाते हुए उसने केतली पटक दी और जले मुक़ाम को कान से चिपटाते हुए वह हसन को देखने लगा जो मुटि्ठयाँ भीचे, गुस्से में बर्राता गालियाँ बकता, चला जा रहा था।
काफ़ी दूर निकल आने पर हसन को लगा कि वह चूना-भट्ठे पर पहुँच चुका है। मोड़ का तमोली और वह लहकट ताड़ीवाला बजरंगी उसे अब आवाज़ देने ही वाले हैं।
लेकिन जब कोई आवाज़ न आई तो उसने सिर को झटका। आँखें मलीं। जब उन पर से धुँध छँटा तो देखा, वह चूना भट्ठे की जगह किसी अपरिचित जगह पर पहुँच गया है। यह जगह कम्पनी बाग़ कहलाती थी। चूना-भट्ठे से बिल्कुल उलट रास्ते पर थी। यहाँ न चूने और धूल के बबंडर थे, न मशीनों की कानफोड़ आवाज़। और न ही किसी आदमी के शोर का अंदेशा। यहाँ सब कुछ शांत था। ठण्डक, एक तरह से तरी सी फैली थी जिससे दिल दिमाग़ और आँखों को ठण्डक सी पहुँचती थी। बड़ा-सा घास का मैदान था जिसके किनारों पर गुलाबों की महकती सफ़ थीं। मैदान को कंटीले तारों से घेरा गया था। छोटे रास्ते थे जिनमें से सिर्फ़ आदमी ही हिकमत से आ जा सकते थे। मवेशियों से बचने के लिए यह हिकमत अपनाई गई थी।
मैदान के एक कोने में बच्चों के खेल-मनोरंजन की व्यवस्था थी। फिसलपट्टी, झूले से लेकर छुपा-छिपाई जैसे खेल के साधन मुहैया थे।
मैदान के छोटे रास्तों के पास दो-तीन गुब्बारे थे जो लकड़ी के बड़े अड्डों पर गुब्बारों के रंग-बिरंगे बंदर तोते और तरह तरह के मुखौटे, रंगीन चश्मे बेच रहे थे। गैस के गुब्बारे थे जो अंगूर के गुच्छे की तरह हवा में टंगे थे, गैस के हंडों से बँधे हुए।
यकायक एक चार-पाँच बरस का बच्चा जो लाल जूते-मोजे और ऐसे ही रंग के कपड़े पहने था जिससे कि वह खिलौने की तरह प्यारा लग रहा था, कूदता-फाँदता, दौड़ता हुआ मैदान के छोटे से रास्ते से निकला और एक गुब्बारे वाले की तरफ़ भागा। उसकी मुट्ठी में सिक्का था जिसे उसने गुब्बारे वाले को दिया। गुब्बारेवाले ने अड्डे की तरफ़ इशारा करते हुए बच्चे से गुब्बारा चुनने को कहा। बच्चे ने अड्डे का मुआयना किया, लेकिन कोई गुब्बारा उसे जँचा नहीं। मुखौटे और रंगीन चश्मे भी एक-एक की निकलवाए लेकिन जँचे नहीं। अंत में उसने गैस का गुब्बारा देने को कहा। गुब्बारेवाले ने गुब्बारा निकाला और उसके धागे को उसकी उँगली से बाँध दिया। गुब्बारा ऊपर टँगा था। बच्चा आगे बढ़ा तो गुब्बारा उसके सिर के ऊपर 40 के कोण पर झुका था। गुब्बारा लिए बच्चा बहुत ही खुश और चंचल हो रहा था कि यकायक उसने हसन को देखा और ठिठक कर खड़ा हो गया। हसन में कुछ ऐसी चीजें दिखीं कि वह हँस पड़ा और मुँह चिढ़ाकर भाग खड़ा हुआ।
हसन का ग़ुस्सा बहुत पहले ही पीछे छूट गया था। मैदान, घास, गुलाब और आख़िर में इस चंचल बच्चे ने तो उसकी तबीयत गिल्ल कर दी। बच्चे के मुँह चिढ़ाने ने तो उसे भिगो दिया। लगा उसका पूरा बदन गुलाब हो जिस पर ओस की बूँदें आ चिपटी हों।
बच्चा दौड़ता हुआ छोटे से रास्ते से मैदान की तरफ़ निकल गया। लेकिन हसन को लगा वह मैदान में न जाकर उसके दिल में समा गया है। बच्चे के बारे में वह सोच ही रहा था तभी उसे अपने बच्चे का ध्यान आया। उसने सोचा कि उसका बेटा भी इतना ही उमर का है! यह बात उसके दिल में गूँजी थी कि एक दूसरी बात उठ खड़ी हुई कि नहीं, बेटा उसका बड़ा है, सात-आठ साल का! जब वह इस पर सोचने लगा तो पहली बात ने उसे झिंझोड़ डाला। जब इसकी गिरफ़्त में आ गया। तो दूसरी ने उसे झिंझोड़ डाला और वह दूसरी के गिरफ़्त में आ गया। गिरफ्तों की आपसी मार-काट में वह इस तरह पलझाया कि तय नहीं कर पाया कि आख़िर उसके बच्चे की उमर कितनी है! खीझ गया। उसने अपने बाल नोच डाले और कई मुक्के बरसाये माथे पर जो किसी काम का नहीं रह गया था।
बहरहाल, बच्चे की उमर की जाँच के लिए वह घर की ओर भागा। उसने फिर सोचा कि उसका बच्चा उस गुब्बारेवाले बच्चे जैसा ही है। और उतनी ही उमर का। इस बात की पड़ताल के लिए उसने अपने दिमाग़ में उन लमहों को टटोला जिसमें बच्चा अपनी समूची शोख हरकत के साथ कहीं न कहीं ज़रूर दुबका होगा, लेकिन बार-बार की टटोल के बाद भी वह बच्चे को हेर नहीं पाया। उसे मुन्ने के पैदा होने का ध्यान था। एक बार बीमार पड़ा था तब वह सूखकर पिल्ले की तरह हो गया था लेकिन उसके बाद का उसे ध्यान ही नहीं। वह मुन्ने को ढूँढ रहा था। लेकिन दिमाग़ चलनी हो रहा था।
एक बड़े से पत्थर से वह टकरा गया। उसके पैर का अँगूठा लहूलुहान हो गया। लेकिन इससे बेखबर वह ‘मुन्ने मुन्ने' कहता बढ़ा जा रहा था।
गलियाँ, नालियाँ और कूड़ों के ढेर पार करता वह अपने घर के सामने के गंध छोड़ते नाले को फलाँगकर घर में नमूदार हुआ।
बीवी को उसने ज़ोरदार आवाज़ लगाई जो एक कोने में बैठी बर्तन घिस रही थी।
बीवी के सामने आने पर उसने पूछा कि बचवा कहाँ है?
बीवी ने आश्चर्य में डूबते हुए कहा- बचवा?
- हाँ बचवा, अपना मुन्ने! खुशी में विह्वल बुदबुदाता हुआ वह बोला- कहाँ है वह? कितने साल का है वह?
बीवी सकते में आ गई। कहीं दिमाग़ तो नहीं चल गया इसका! अपने को यकायक काबू करती बोली- मुन्ने कित्ते साल का? वह मुन्ने कहाँ रहा? वह तो ढपोंग हुआ दस बरस का! चाय की दुकान में काम करता है। यह क्या लेटा है।- इशारे से उसने लड़के को दिखाया- कब से ठेल रही हूँ, उठता ही नहीं। अभी मालिक आ जाएगा तो लगाएगा बीसों जूते! झोंटा पकड़कर ले जाएगा....।
- आंय! यह अपना मुन्ने है! पोंछे जैसा हो रहा है यह तो! और कब इसने बढ़त ली! मैं कहाँ रहा अब तक?- यह सोचते ही उसे यकायक धक्का-सा लगा जैसे दिल में कहीं कुछ टूट-फूट हो गई।
उसाँस सी लेते हुए सहसा उसने अपने को सँभाला और झेंप मिटाते, बीवी पर बिगड़ते हुए कहा- हाँ, हाँ, जान रहा हूँ, तू इतना बकबका क्या रही है रे?
बीवी चुप थी।
हसन उसी दम उल्टे पाँव लौट गया।
- -
मुन्ने की उमर
हरि भटनागर
आर्डर देने के बाद सात-आठ हाँक लगाने पर भी जब चाय नहीं आई तो उसका मूड आफ हो गया। चूने से रँजे उसके बदन में मिर्ची सी फैल गई। वैसे भी वह ग़ुस्से के लिए मशहूर था। बात-बात पर किसी से उलझ पड़ना समान्य-सी बात थी। मार-पिटाई हो जाना उससे भी सामान्य। होंठ चाबकर उसने गरदन झिटकी जिससे चूने का चूरा झरा, फिर चूने से बेतरह कटे हाथ को हिलती बेंच पर दे मारा। बेंच पर हाथ मारने से हाथ को कहाँ तक चोट लगी या वह कहाँ तक झन्नाया, इसका सही हवाला नहीं दिया जा सकता, क्योंकि अब वह मुट्ठी में तब्दील होता जा रहा था। लेकिन बेंच के बारे में ज़रूर कहा जा सकता है कि अपनी जगह से खिसक गई। जोड़ की दो-एक कीलें नीचे आ गिरीं और सबसे बड़ी बात यह कि उस पर रखे दो-चार गिलास अपनी जगह से उछले और लुढ़क पड़े। जब तक आस-पास बैठे लोग पकड़ने दौड़ते, गिलास फर्श पर गिरकर फूट चुके थे।
लेकिन इससे बेख़बर हसन पूरी तरह ग़ुस्से के हवाले हो चुका था। मुटि्ठयाँ लहराते हुए उसने चायवाले को भद्दी गालियाँ देना शुरू कर दी थीं। और यह कहकर चीखने लगा कि क्या फ्री-फण्ड की चाय देता है जो देर करता है....वगै़रह बहुत सारी बातें।
चायवाले को उसके बरताव पर लाल-पीला होना चाहिए। लेकिन नहीं, वह ज़रा भी लाल-पीला नहीं हुआ। न ही कुछ बोला। हसन को वह अरसे से जानता है। यही नहीं, चूने भट्ठे और घर में भी वह इसी तरह का बरताव करता है। चूने भट्ठे का मालिक भी उससे कुछ नहीं बोलता। फिर बीवी की क्या बिसात। कहते हैं एक बार बीवी ने पिटते वक़्त उसका गट्टा पकड़ लिया था तो उसने सिर पर गँडास पटक दिया था। पड़ौसी अस्पताल ले गए। टांके लगे, तब बची थी वह।
चायवाले ने होंठों में पता नहीं कब के बुझ चुके बीड़ी के ठुड्डे को फेंका और गिलास में चाय छानी और लड़के के हाथ भेजने के बजाय खुद लिए दौड़ा आया। यह कहते कि हसन भाई के लिए पेशल बना रहा था, इसलिए देर हुई।
गिलास से भाप उठ रही थी जिसका अहसास हसन को नाक पर हो रहा था, क्योंकि चायवाले ने गिलास उसकी नाक से सटा दिया था ताकि वह मुँह तक न हिला सके। वह तो पहले से गुस्से से बौखलाया था, चाय की भाप ने मानो उसके गुस्से को लौ दे दी। तिड़तिड़ाया हुआ वह एक दो डग पीछे हटा।
- चाय लो भाईजान, चाय! पेशल लाया हूँ, सिरफ़ तेरे लिए...
हसन ने उसके मुँह को देखा जिसमें चाय की भाप की तरह ये लफ़्ज निकलते जा रहे थे।
- गुस्से थूक दो मेरी जान। चायवाले ने मुस्कराते हुए जब ये लफ़्ज़ लिकाले तो हसन जलकर खा़क़ हो गया। साला ऐसे कह रहा है जैसे मैं कोई पतुरिया होऊँ। हत् तेरी....गाली देने के बाद उसने गिलास उसके हाथ से लिया और फर्श पर दे मारा। जब तक चायवाला चिल्लाता, हसन सपाटे से आगे लपका। इस चक्कर में वह एक स्टूल से टकरा गया। लड़खड़ाते हुए मुँह के बल गिरते-गिरते बचा। यह कहें एक आदमी ने उसे थाम लिया।
थामने वाले आदमी को हसन ने भद्दी गालियाँ दे डालीं क्योंकि वह उसे चायवाला जैसा ही नज़र आया।
चायवाले ने अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए अल्ला ताला से हसन पर रहम करने की दुआ मांगी। दुआ मांगते वक़्त वह इतना मशगूल हो गया कि पता ही नहीं चला कि खौलकर चाय कब बहने लगी। भट्ठी के बुझने और उसमें से उठते धुँए ने यकायक उसे चौंकाया। उसने फुर्ती से केतली उठाई। हैंडिल आँच की तरफ़ होने की वजह से लाल हो गया था। छौंछियाते हुए उसने केतली पटक दी और जले मुक़ाम को कान से चिपटाते हुए वह हसन को देखने लगा जो मुटि्ठयाँ भीचे, गुस्से में बर्राता गालियाँ बकता, चला जा रहा था।
काफ़ी दूर निकल आने पर हसन को लगा कि वह चूना-भट्ठे पर पहुँच चुका है। मोड़ का तमोली और वह लहकट ताड़ीवाला बजरंगी उसे अब आवाज़ देने ही वाले हैं।
लेकिन जब कोई आवाज़ न आई तो उसने सिर को झटका। आँखें मलीं। जब उन पर से धुँध छँटा तो देखा, वह चूना भट्ठे की जगह किसी अपरिचित जगह पर पहुँच गया है। यह जगह कम्पनी बाग़ कहलाती थी। चूना-भट्ठे से बिल्कुल उलट रास्ते पर थी। यहाँ न चूने और धूल के बबंडर थे, न मशीनों की कानफोड़ आवाज़। और न ही किसी आदमी के शोर का अंदेशा। यहाँ सब कुछ शांत था। ठण्डक, एक तरह से तरी सी फैली थी जिससे दिल दिमाग़ और आँखों को ठण्डक सी पहुँचती थी। बड़ा-सा घास का मैदान था जिसके किनारों पर गुलाबों की महकती सफ़ थीं। मैदान को कंटीले तारों से घेरा गया था। छोटे रास्ते थे जिनमें से सिर्फ़ आदमी ही हिकमत से आ जा सकते थे। मवेशियों से बचने के लिए यह हिकमत अपनाई गई थी।
मैदान के एक कोने में बच्चों के खेल-मनोरंजन की व्यवस्था थी। फिसलपट्टी, झूले से लेकर छुपा-छिपाई जैसे खेल के साधन मुहैया थे।
मैदान के छोटे रास्तों के पास दो-तीन गुब्बारे थे जो लकड़ी के बड़े अड्डों पर गुब्बारों के रंग-बिरंगे बंदर तोते और तरह तरह के मुखौटे, रंगीन चश्मे बेच रहे थे। गैस के गुब्बारे थे जो अंगूर के गुच्छे की तरह हवा में टंगे थे, गैस के हंडों से बँधे हुए।
यकायक एक चार-पाँच बरस का बच्चा जो लाल जूते-मोजे और ऐसे ही रंग के कपड़े पहने था जिससे कि वह खिलौने की तरह प्यारा लग रहा था, कूदता-फाँदता, दौड़ता हुआ मैदान के छोटे से रास्ते से निकला और एक गुब्बारे वाले की तरफ़ भागा। उसकी मुट्ठी में सिक्का था जिसे उसने गुब्बारे वाले को दिया। गुब्बारेवाले ने अड्डे की तरफ़ इशारा करते हुए बच्चे से गुब्बारा चुनने को कहा। बच्चे ने अड्डे का मुआयना किया, लेकिन कोई गुब्बारा उसे जँचा नहीं। मुखौटे और रंगीन चश्मे भी एक-एक की निकलवाए लेकिन जँचे नहीं। अंत में उसने गैस का गुब्बारा देने को कहा। गुब्बारेवाले ने गुब्बारा निकाला और उसके धागे को उसकी उँगली से बाँध दिया। गुब्बारा ऊपर टँगा था। बच्चा आगे बढ़ा तो गुब्बारा उसके सिर के ऊपर 40 के कोण पर झुका था। गुब्बारा लिए बच्चा बहुत ही खुश और चंचल हो रहा था कि यकायक उसने हसन को देखा और ठिठक कर खड़ा हो गया। हसन में कुछ ऐसी चीजें दिखीं कि वह हँस पड़ा और मुँह चिढ़ाकर भाग खड़ा हुआ।
हसन का ग़ुस्सा बहुत पहले ही पीछे छूट गया था। मैदान, घास, गुलाब और आख़िर में इस चंचल बच्चे ने तो उसकी तबीयत गिल्ल कर दी। बच्चे के मुँह चिढ़ाने ने तो उसे भिगो दिया। लगा उसका पूरा बदन गुलाब हो जिस पर ओस की बूँदें आ चिपटी हों।
बच्चा दौड़ता हुआ छोटे से रास्ते से मैदान की तरफ़ निकल गया। लेकिन हसन को लगा वह मैदान में न जाकर उसके दिल में समा गया है। बच्चे के बारे में वह सोच ही रहा था तभी उसे अपने बच्चे का ध्यान आया। उसने सोचा कि उसका बेटा भी इतना ही उमर का है! यह बात उसके दिल में गूँजी थी कि एक दूसरी बात उठ खड़ी हुई कि नहीं, बेटा उसका बड़ा है, सात-आठ साल का! जब वह इस पर सोचने लगा तो पहली बात ने उसे झिंझोड़ डाला। जब इसकी गिरफ़्त में आ गया। तो दूसरी ने उसे झिंझोड़ डाला और वह दूसरी के गिरफ़्त में आ गया। गिरफ्तों की आपसी मार-काट में वह इस तरह पलझाया कि तय नहीं कर पाया कि आख़िर उसके बच्चे की उमर कितनी है! खीझ गया। उसने अपने बाल नोच डाले और कई मुक्के बरसाये माथे पर जो किसी काम का नहीं रह गया था।
बहरहाल, बच्चे की उमर की जाँच के लिए वह घर की ओर भागा। उसने फिर सोचा कि उसका बच्चा उस गुब्बारेवाले बच्चे जैसा ही है। और उतनी ही उमर का। इस बात की पड़ताल के लिए उसने अपने दिमाग़ में उन लमहों को टटोला जिसमें बच्चा अपनी समूची शोख हरकत के साथ कहीं न कहीं ज़रूर दुबका होगा, लेकिन बार-बार की टटोल के बाद भी वह बच्चे को हेर नहीं पाया। उसे मुन्ने के पैदा होने का ध्यान था। एक बार बीमार पड़ा था तब वह सूखकर पिल्ले की तरह हो गया था लेकिन उसके बाद का उसे ध्यान ही नहीं। वह मुन्ने को ढूँढ रहा था। लेकिन दिमाग़ चलनी हो रहा था।
एक बड़े से पत्थर से वह टकरा गया। उसके पैर का अँगूठा लहूलुहान हो गया। लेकिन इससे बेखबर वह ‘मुन्ने मुन्ने' कहता बढ़ा जा रहा था।
गलियाँ, नालियाँ और कूड़ों के ढेर पार करता वह अपने घर के सामने के गंध छोड़ते नाले को फलाँगकर घर में नमूदार हुआ।
बीवी को उसने ज़ोरदार आवाज़ लगाई जो एक कोने में बैठी बर्तन घिस रही थी।
बीवी के सामने आने पर उसने पूछा कि बचवा कहाँ है?
बीवी ने आश्चर्य में डूबते हुए कहा- बचवा?
- हाँ बचवा, अपना मुन्ने! खुशी में विह्वल बुदबुदाता हुआ वह बोला- कहाँ है वह? कितने साल का है वह?
बीवी सकते में आ गई। कहीं दिमाग़ तो नहीं चल गया इसका! अपने को यकायक काबू करती बोली- मुन्ने कित्ते साल का? वह मुन्ने कहाँ रहा? वह तो ढपोंग हुआ दस बरस का! चाय की दुकान में काम करता है। यह क्या लेटा है।- इशारे से उसने लड़के को दिखाया- कब से ठेल रही हूँ, उठता ही नहीं। अभी मालिक आ जाएगा तो लगाएगा बीसों जूते! झोंटा पकड़कर ले जाएगा....।
- आंय! यह अपना मुन्ने है! पोंछे जैसा हो रहा है यह तो! और कब इसने बढ़त ली! मैं कहाँ रहा अब तक?- यह सोचते ही उसे यकायक धक्का-सा लगा जैसे दिल में कहीं कुछ टूट-फूट हो गई।
उसाँस सी लेते हुए सहसा उसने अपने को सँभाला और झेंप मिटाते, बीवी पर बिगड़ते हुए कहा- हाँ, हाँ, जान रहा हूँ, तू इतना बकबका क्या रही है रे?
बीवी चुप थी।
हसन उसी दम उल्टे पाँव लौट गया।
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कहानी अच्छी लगी.
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