रेखाचित्र शहद बेचने वाले अखिलेश शुक्ल वसंत ने अपने आगमन का आभास दे दिया था। वातावरण में हलकी गुलाबी ठंड ने लोगों के चेहरों पर ग...
रेखाचित्र
शहद बेचने वाले
अखिलेश शुक्ल
वसंत ने अपने आगमन का आभास दे दिया था। वातावरण में हलकी गुलाबी ठंड ने लोगों के चेहरों पर गुलाबी-सी रंगत देकर उन्हें और भी हसीन बना दिया था। नेशनल हाईवे पर पलाश के फूलों से लदे-फदे वृक्ष सरसराती हवा के मध्य राजपथ चूमने के लिए बेताब लग रहे थे। वातावरण कुल मिलाकर प्राचीन भारतीय कवियों के प्रकृति वर्णन विशेषकर वसंत-ऋतु वर्णन के लिए उपयुक्त था। मैं स्वयं भी अपने मित्रों के साथ हलकी गुनगुनी धूप में बैठा हुआ हँसी-ठट्टे में मशगूल था। सरस्वती वंदना और हे प्रभु आनंददाता.......... के पश्चात् छात्र-छात्राएँ अपनी-अपनी कक्षाओं में जा चुके थे। जिनके प्रथम कालखंड़ थे वे शिक्षक-शिक्षिकाएँ चाक-डस्टर-रजिस्टर आदि लेकर कक्षाओं में जा रहे थे। हम तीन-चार व्याख्याता@शिक्षक ही थे जो धूप में खड़े बतिया रहे थे। हमारी बातचीत का कोई ओर छोर नहीं था। जिसके जो मन में आ रहा था वह अपनी बात कहकर हाँ भरवाने में लगा हुआ था। कुल मिलाकर वातावरण शैक्षिक गतिविधियों पर केन्द्रित था।
”मास्टर साहब शहद लेगें क्या?, साहब जी शहद लेंगे क्या?“ अपरिचित लेकिन कानों में शहद घोलती हुई आवाज सुनाई दी। हमारी बातचीत का सिलसिला कुछ पल के लिए रूक गया। सभी साथी शिक्षक विद्यालय के मुख्य द्वार की ओर देखने लगे। वे दो लड़के थे, लगभग 15-17 वर्ष के मध्य उनकी उम्र होगी। दोनों काले रंग के वस्त्र पहने हुए थे। पैरों में घिसी हुई स्पंज की चप्पल और काले बिखरे लटायुक्त केश उन्हें हमसे अलग दिखाने के लिए पर्याप्त थे। गले में मैला-सा रूमाल लपेटे हुए गहरे सांवले वर्ण युक्त वे युवक हमारा ध्यान बरबस अपनी ओर खींच रहे थे। एक युवक के हाथ में बाल्टी लटकी हुई थी तथा बगल में एक फटा पुराना कम्बल दबा हुआ था। दूसरा युवक हाथ में मटकी लटकाए हुए था। इससे पूर्व मैंने शहद बेचने वालों के रूप में अपनी कालोनी में मजबूर असहाय महिलाओं को गोद में भूख से रोते बिलखते व्याकुल बच्चों के साथ ही देखा था। जिनसे शहद खरीदने के बहाने संभ्रांत कहलाने वाला समाज कुछ और ही अपेक्षा करता था।
आत्मविश्वास युक्त चाल से वे युवक शाला का मुख्य द्वार पार करके हमारी ओर चले आए थे। उनके चेहरे का तेज बता रहा था कि वे हमें शहद अवश्य ही बेचकर जाएंगे। मेरे एक साथी शिक्षक तेज स्वभाव के थे, उन्होंने उन दोनों युवकों देखते हुए कहा, ”चलो-चलो यहाँ से, देखते नहीं यह स्कूल है, धंधा करना है तो गली मोहल्लों में जाकर करो।“
मैंने अपने स्वभाव के अनुसार उन युवकों से सहानुभूति जताते हुए उन्हें हमारे पास आने का संकेत किया था।
वे दोनों हमारे पास आकर बैठ गए। उन्होंने अपना टीम-टाम फैलाना शुरू कर दिया। शहद और
मधुमक्खी के मोम से भरी बाल्टी सामने की ओर रख दी। दूसरे ने कम्बल में लिपटी एक पुरानी तराजू निकालकर अपने हाथ में लटका ली। उस तराजू को हमें दिखलाकर तौल के प्रति हमें विश्वास में लेने का प्रयास करने लगा। वे अपना बाज़ार लगाने के साथ-साथ एक दूसरे से गौड़ी ( म.प्र. में निवास करने वाली आदिवासी जाति की बोली) में बातचीत कर रहे थे। हम सब उस भाषा का अर्थ समझ नहीं पा रहे थे लेकिन इतना अंदाज जरूर हो गया था कि वे दोनों कल शाम से घर से चले हैं। कल से ही उन्होंने अन्न का एक दाना तक पेट में नहीं डाला है।
शहद खरीदने में किसी की भी रूचि नहीं थी। उन युवकों के क्रियाकलाप को सभी समय काटने के लिए देख रहे थे। मेरे एक दो साथियों ने शहद का मोलभाव करना प्रारंभ कर दिया था। शहद की गुणवत्ता को लेकर व्यंग्य विनोद चल पड़ा था। किसी का विचार था कि यह तो देसी गुड़ की चाशनी है, तो कोई इसे हलवाई से खरीदे गए सड़े-गले बूरे की बनी हुई शहद बता रहा था। एक अन्य शिक्षक के विचार से यह शहद जंगलों में पाई जाने वाली किसी जड़ को पानी में उबालकर गाढ़+ा किया गया रस था। कुछ अन्य साथी अपने-अपने तरीके से शहद की गुणवत्ता परख रहे थे।
उन युवकों से मोल भाव करते करते अंत में शहद का भाव 150 रू. प्रति किलो से कम करते हुए 50 रू. प्रति किलो तय हुआ। जिस शहद को कोई मुफ्त में नहीं लेना चाहता था अब उसे ही खरीदने की होड़ लगना शुरू हो गई थी।
मेरी रूचि शहद खरीदने के बजाए उन युवकों के बारे में जानकारी प्राप्त करने में अधिक थी। मैं उनके जीवन संघर्ष पर कहानी लिखने का विचार लिए हुए था। इसी आशा में मैंने उनसे कुछ व्यक्तिगत प्रश्न भी किए थे। उन प्रश्नों के उत्तर गौड़ी मिश्रित हिंदी में दिए जाने पर मैं उनके बारे में अच्छी तरह समझने में अपने आप को असमर्थ पा रहा था।
उनकी जानकारी के अनुसार, “वे दोनों बैतूल जिले की शाहपुर तहसील के किसी आदिवासी गाँव के रहने वाले थे। घने वनों तथा पहाडि़यों से घिरे उस आदिवासी ग्राम में अलमस्त जिंदगी व्यतीत करने वाले अन्य आदिवासी परिवारों के समान उनका जीवन भी था। मेहनत मजदूरी के लिए कतारबद्ध होकर पच्चीस तीस मील रोज पैदल चलना उनकी दिनचर्या का अनिवार्य अंग था। ग्राम के पास स्थित कसबे के साहूकारों के पास
अधिकांश आदिवासियों की जमीनें तथा जेवरात गिरवी रखे थे। खेती योग्य जमीन से वे वंचित थे। कुछ के पास जमीनें थीं तो नई तकनीक के अभाव में वे कोदों कुटकी जैसी कम उपज वाली फसल पर आश्रित थे। फिर भी कच्चे तथा घास-फूस के झोपड़ों में वे अपने आप को खुशहाल समझते रहते। आसपास के शहरी क्षेत्रों में जाकर दिनभर कठोर परिश्रम करना, रात भर टिमकी बजाते हुए नाचना गाना उनकी जीवन शैली बन गई थी। महुए से बनी देसी सुरा का पान उनके लिए अनिवार्य था। वे स्वयं इसे आसवित कर समूहों में उपयोग में लेते जिस पर उनकी विरादरी में किसी को केाई ऐतराज नहीं था। वे दोनों गौड़ी युवक रोजगार की तलाश में पचमढी के जंगलों की ओर आ गए थे। कुछ दिन भटकने के पश्चात उन्होंने शहद बेचने का धंधा प्रारंभ कर दिया था।“
उन युवकों ने इसे अलावा क्या-क्या कहा मैं कुछ समझ नहीं पाया।
वे दोनों तराजू पर रखे ईट के टुकड़ों के बराबर शहद तौल रहे थे। जितनी तेजी से उनके हाथ चल रहे थे जबान उससे भी अधिक तेज चल रही थी। कभी वे शहद की विशेषताएं बताते, तो कभी शहद सेवन के लाभों पर अपने विचार व्यक्त करते।
उन दोनों में से एक से मैंने पूछा, “तुम लोग ग्राहकों को अपनी लच्छेदार बातों में उलझाकर शहद के नाम पर कुछ भी टिका जाते हो। जिसे कुछ दिन बाद फेंकना पड़ता है। तुम्हें इस तरह से लोगों को मूर्ख बनाने में शर्म नहीं आती?” मेरा इतना कहना था कि वे दोनों एक स्वर में बोल उठे, ”नहीं मास्टर साहब, हमारा माल तो चोखा है, लोग कच्चे शहद को कई दिनों तक अंधेरे शीलन भरे कमरे में रखे रहने देते हैं जिससे शहद खराब हो जाता है, उसमें से बदबू आने लगती है, इसमें हमारा क्या दोष है?“
पुनः एक बार फिर वाद-विवाद का अंतहीन सिलसिला प्रारंभ हो चुका था। मैं उन शहद बेचने वाले युवकों की ओर हो गया था। तर्क वितर्क के इस सिलसिले को कुछ देर बाद हमने अपने आप को तसल्ली देते हुए यह सोचकर खत्म किया कि 50 रू. में शक्कर अथवा गुड़ की चाशनी भी महंगी नहीं है।
कुछ शिक्षक साथी शहद लेकर बिना दाम चुकाए गायब हो गए थे, कुछ एक ने अपने आप ही शहद तौल लिया था। कुछ मुफ्त में शहदपान का मजा ले रहे थे। साथी स्वयं दोषी होते हुए भी उन आदिवासी युवकों को दोषी ठहरा रहे थे। जैसे मानों उन युवकों ने शहद बेचकर कोई अपराध किया हो।
कुछ समय पश्चात वे दोनों युवक शहद बेचकर रूपए और अपना सामान लेकर मुख्य द्वार से बाहर निकलकर जा चुके थे। हम समझ रहे थे कि हमने सस्ता सौदा किया है। हम सब कम दाम में शहद प्राप्त करने का जश्न मना रहे थे। हम पढ़े-लिखे शिक्षित तथा सभ्य समाज के लोग उन्हें ठगकर प्रसन्नता व्यक्त कर रहे थे।
मैंने उन आदिवासी युवकों के चेहरे पर आज का इंतजाम हो जाने का भाव साफ पढ़ लिया था। उन्हें आज का खर्च मिल जाने पर उनके पैर धरती पर नहीं पड़ रहे थे। मैं सोच रहा था कि दूसरों के जीवन में शहद घोलने वाले इन लोगों का जीवन भी कितना करूणामय होता है। वे लोगों का उपहास तथा तिरस्कार झेलने के पश्चात भी उफ तक नहीं करते। ये भी समाज का एक अंग है। काश! कोई उनके जीवन में चंद रूपयों के बजाए मधु घोलकर उनका जीवन खुशियों से भर देता।
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अखिलेश शुक्ल
63, तिरूपति नगर,
इटारसी 461111 (म.प्र.), फो. 240900
सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी लगी आपकी ये रचना...
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