हरी भटनागर की कहानी : घर कहाँ है

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कहानी   घर कहाँ है हरी भटनागर जो मुनादी अभी थोड़ी देर पहले चूना-भट्‌ठे के सामने हो रही थी, अब रामलाल के दिल में हो रही है और दिल ...

कहानी

 

घर कहाँ है

हरी भटनागर

जो मुनादी अभी थोड़ी देर पहले चूना-भट्‌ठे के सामने हो रही थी, अब रामलाल के दिल में हो रही है और दिल के रास्‍ते होती हुई उसके समूचे शरीर में अजीब सी बेचैनी मचा रही है जिसका असर यह हुआ कि घण्‍टे भर में वह कइयों चाय पी आया और बीड़ी का पूरा बण्‍डल फूंक डाला। और कोई दिन होता तो वह ऐसा कुछ भी न कर पाता। दोपहर की छुट्‌टी और शाम को ही चाय-बीड़ी पी पाता। लेकिन आज का क्‍या करें! वह बेचैन है। बेचैनी में उसने चायवाले और अपने साथियों से कई बार टाइम पूछा जिसका जवाब उसे यह मिला कि घबराने की ज़रूरत नहीं है राजा! चमेली बाई का नाच तुम देखोगे और सबसे आगे बैठ के कि गरदन उचकाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी और वह सब देखने को मिल जाएगा जिसके लिए लोग हज़ारों खरच देते हैं, उसके बाद भी नहीं देख पाते!

इस पर रामलाल ने कोई प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त नहीं की। वह अपनी धुन में था। यानी यही कि कब काम ख्‍़ात्‍म हो और वह यहाँ से रवाना हो। लेकिन काम ख़त्‍म हो भी जाएगा तो क्‍या वह जा पाएगा? जा तो वह तभी पाएगा जब शाम होगी, अंधेरा घिरेगा। उसने गहरी साँस ली। मगर दूसरे ही पल वह नाच के हवाले हो गया। यह नाच वह ठीक बीस साल बाद देखेगा। तब वह बीस बरस का गबरू जवान था। उसने तब इसी चूना-भट्‌ठे में काम करना शुरू किया था। क़स्‍बे के एक बहुत बड़े मैदान में वह नाच हुआ था और सारी रात चला था। उसने पूरी तन्‍मयता से पूरा नाच देखा था और पल भर के लिए भी उसकी आँखें नहीं करुआई थीं। जबरदस्‍त शोर के साथ जब नाच ख़त्‍म हुआ था तब वह घर नहीं गया था। वहीं, उसी जगह पर। मैदा होती धूल में चवन्‍नियाँ बाई का नाम लेकर सो गया था। उसकी नींद तब खुली जब मक्‍खियाँ भिनभिनाते हुए उसे बेतरह काट रही थीं। समूचे मैदान में झक्‍क सफेद धूप फैली थी। वह अकेला था और दूर-दूर तक किसी का अता-पता न था! उसके रोम-रोम में नगाड़ा किरकिरा रहा था और चवन्‍नियाँ बाई थिरक रही थीं । इतने लम्‍बे समय बाद आज भी वह नगाड़ा और वह चवन्‍नियाँ बाई उसके रोम-रोम में जिन्‍दा हैं। उनकी छवि ज़रा भी नहीं मटियाई!

मुनगे के पेड़ की चितकबरी धूप-छाँह में रामलाल ने बीड़ी का दूसरा बण्‍डल खोला। लेकिन दिमाग़ में उसके यह बात बज रही थी कि चवन्‍नियाँ बाई के गाल कैसे लाल-लाल थे संतरे के माफिक! और होंठ के बग़ल का वह तिल तो ग़ज़ब का था। सबसे क़ातिल था उसका मुस्‍किया के आँख मारना! एक बार इसी तरह आँख मारने पर उसने भी अग़ल-बग़ल देखकर उसे इसी तरह आँख मार दी थी मग़र तभी ज़ोरों का हल्‍ला हुआ था और डर के मारे उसके प्राण नहीं में समा गए थे। थोड़ी देर बाद उसने महसूस किया था कि हल्‍ला उसके आँख मारने की वजह से नहीं हुआ था। वह तो किसी ने देखा भी न था। लोग चवन्‍नियाँ बाई की किसी जानमारू अदा पर चिल्‍लाए थे। ‘आज वह भरपूर आँख मारेगा' - यह बात जब वह अन्‍दर ही अन्‍दर मुस्‍कुराते हुए सोच रहा था तब उसके साथ के एक कामगार ने कहा कि आज क्‍या वह रोटी नहीं खाएगा? रोटी का टाइम तो निकल गया!

टाइम निकलने की उसने तनिक परवाह न की। बावजूद इसके उसने हड़बड़ी में रोटियाँ निकालीं। कपड़े में बँधी होने के बाद भी रोटियाँ सख्‍़त थीं जिन्‍हें वह कर्र-कर्र चबाने लगा। वह ठीक से चबा नहीं रहा था, शायद इसीलिए गले के नीचे सामान मुश्‍किल से उतर रहा था जिस वजह से उसकी आँखों में रह-रह पानी डबडबा आता। रोटी खाकर उसने पानी नहीं पिया। वह कपड़ा जिसमें रोटियाँ लपेटकर लाता था, आधी रोटी के साथ खजहे कुत्ते की ओर फेंक दिया जो बहुत देर से दुम हिलाता बार-बार थूक निगलता उसके सामने याचक की तरह खड़ा था।

- ले! - उसने कहा - चमेलीबाई के नाच में साथ चलना, नहीं कल से कुछ न दूंगा!

कुत्ता चतुर शिकारी की तरह माल मुँह में दबाए निकल चुका था और रामलाल बण्‍डल की आखि़री बीड़ी का आख़िरी क़श उंगलियों के पोरों में लेकर खींच रहा था। धुएँ में हुई लाल आँखों में चवन्‍नियाँ बाई का सुन्‍दर चेहरा, वह मादक तिल नगाड़े की किरकिर के बीच नाच रहा था!

जब अंधेरा घिरा और धूल भरे पेड़ों और चूना-भट्‌ठे के गिर्द कुछ ज्‍़यादा ही चटख होने लगा, रामलाल अपने साथियों के साथ चूना भट्‌ठे से निकला।

रामलाल सिर में बड़ा-सा चादरा साफ़े की माफिक बाँधे था। एक लम्‍बी कमीज़ पहने था जो छाती पर चौपट खुली थी। पसीने और चूने से जो इस कदर रँजी थी कि चूने और पसीने की कमीज़ लगती थी। कमीज़ के नीचे चारखाने की जाँघिया थी जो घुटने तक थी जिसका सुतली का इजारबंद बाएँ घुटने पर था जो जाँघिया के अन्‍दर से निकला था। जाँघिया की हालत कमीज़ जैसी ही थी। फ़क़र् यह था कि कमीज़ में जहाँ जगह-जगह लम्‍बे-छोटे चीरे थे, इसमें नहीं थे।

तकरीबन यही हालत उसके साथियों की थी बल्‍कि इससे बदतर। लेकिन इस सबसे ग़ाफिल नाच के उल्‍लास में थे।

रामलाल सबसे आगे तेज़ क़दमों से चला रहा था। जिस रास्‍ते से वह जा रहा था, कीचड़-मैले से भरा था। दोनों तरफ़ फूस और भुरभुरी मिट्टी के झोपड़े थे जो धुएँ से भरे थे और जिनमें धुँधली-सी ढिबरियाँ जल रही थीं। लोग झोपड़ों के सामने खाट या ज़मीन पर बैठे बीड़ी या हुक्‍का पी रहे थे। बच्‍चे मच्‍छरों से खेल रहे थे।

रामलाल की यकायक इच्‍छा हुई कि सबको पकड़े और कहे कि क़स्‍बे में नाच हो रहा है और तुम लोग मच्‍छरों के बीच नालियों में पड़े हो! चलो, उठो! लेकिन पता नहीं क्‍यों उसने यह इरादा बदल दिया।

थोड़ी देर बाद वह उस मैदान में पहुँचा जिसमें बीस बरस पहले नाच देखने गया था। मैदान अब पहले जैसा नहीं था। उसे चारों तरफ़ मजबूत चारदीवारी से घेर दिया गया था। बाहर एक-दूसरे के कंधों से सटी गुमटियाँ थीं। पहले तख्‍़तों को जोड़कर मंच बनाया गया था, अब बहुत बड़ी पक्‍की चट्‌टान जैसा था और रोशनी ऐसी थी जैसे दोपहरी हो।

मैदान खचाखच भरा था और जबरदस्‍त शोर मचा हुआ था। आदमी-औरतों के बैठने की अलग-अलग व्‍यवस्‍था रस्‍सियाँ खींचकर की गई थी। जगह-जगह खंभों पर लाउडस्‍पीकर थे जिनमें तीखी आवाज़ में कोई गाना चल रहा था।

भीड़ को देखकर रामलाल को लगा कि बैठने की जगह नहीं मिल पाएगी। लेकिन जब उसने देखा कि उसके सभी साथ चीख-गुहार-ठेलमठेल और हाथापाई के बीच भीड़ में धँस गए हैं तो उसने भी हिम्‍मत बनाई। वह भीड़ में घुसा और जगह तो पा गया लेकिन उसकी गत-सी बन गई। लात-घूसों के साथ उसे भद्दी गालियाँ मिलीं जो उसकी घरवाली से जुड़ी थीं।

जब उसने पीठ सीधी की और सिर पर हाथ फेरा तो चादरा नदारद था। यह चादरा उसकी शादी के समय का था जिसे वह ओढ़कर सोने और सिर में बाँधने के काम लेता था। उसका दिल धक्‍क हो गया। उसने चारों तरफ़ नज़र डाली, लोगों के नंगे और चादरा-अंगौछा कसे सिर थे। उसे मलाल ने घेर लिया।

काफ़ी देर हो चुकी थी और नाच शुरू नहीं हुआ था, इसलिए हल्‍ला बढ़ता ही जा रहा था। यह हल्‍ला कुछ-कुछ शंकर ताड़ीवाले की दुकान जैसा था जहाँ रामलाल चूना-भट्‌ठे से छूटते ही, रोज़ाना, बिना नागा पहुँचता था। इस वक्‍़त बिना ताड़ी पिए उसके बदन में ऐंठन सी होने लगी और नशा-सा छाने लगा। आँखें झिपने लगीं। लगा जैसे ताबड़तोड़ कई कुज्‍जियाँ पी गया हो।

नशे की इस हालत में उसे लगा कि वह रोज़ की तरह अपने झोपड़े के सामने आ खड़ा हुआ और गालियों की बौछार कर रहा है। जिसे वह गालियाँ दे रहा है, वह उसकी घरवाली है। गाली वह बर्दाश्‍त नहीं करती। अलफ़ होकर वह भी गालियाँ बकने लग जाती है। रामलाल को यह ख़राब लगता है। औरतजात होकर उसे गालियाँ दे! क्रोध में वह हाथ-पैर चला बैठता है। उसकी घरवाली भी ऐसा करने लगती है। रामलाल को लग रहा है कि उसके सिर के बाल खींचे जा रहे हैं। मुक्‍के पर मुक्‍के पड़ रहे हैं और छाती पर लात।

उफ्‍फ! रामलाल ज़ोरों से चीखता है और घरवाली को चैले से मारना शुरू कर देता है। चैला मारते-मारते वह बेदम-सा औंधे मुँह ज़मीन पर गिर पड़ता है और झपकने लगता है।

थोड़ी देर बार थाली पटके जाने की आवाज़ आती है। घरवाली खाना पटक गई है। वह लाल-लाल आँखें खोलता है और बड़बड़ाता हुआ थाली अपनी तरफ़ खींचता है और कच्‍ची-पक्‍की पथी रोटियाँ लेटे-लेटे, ऊँघते हुए, चपर-चपर, खाने लग जाता है और थाली में मुँह रखकर खर्राटे भरने लगता है।

मुँह अंधेरे जब थाली पर कौवों ने पंजे मारे तो उसकी नींद खुलती है। वह चादरा खोजता है ताकि चूना-भट्‌ठे के लिए रवाना हो। लेकिन चादरा है कि मिलता नहीं।

औफ्‍फ! बेतरह सिर खुजलाते हुए उसने गहरी साँस छोड़ी। चादरा तो यहाँ भीड़ में खो गया।

सहसा नगाड़ा किरकिराया और घुँघरू बजे। रामलाल ने मंच की ओर देखा-चमेली बाई थीं जो हाथ जोड़े झुक झुककर सबको सलाम कर रही थीं।

चमेलीबाई का रूप देखते ही बनता था। वह काँचवाली चोली और घेरदार घाँघरा पहने थीं। होंठ उसके सुर्ख लाल थे और गाल किसी सुनहरी चीज़ से झिलमिला रहे थे। सिर पर माँग और कनपटियों से होती हुई जगमगाते फूलों की माला थी जो पीछे चोटी के मुँह से कसी थी। नागिन-सी लम्‍बी, काली चोटी थी जिसकी पूंछ उसके घुटने से टकरा रही थी। चोली से कमर के बीच का शरीर चोली और घाँघरे की तरह ही चमक रहा था!

यकायक रामलाल को पत्‍नी का ध्‍यान हो आया जिसे उसने बरसों से, ढंग से देखा तक न था और मार-पिटाई के अलावा कोई सलूक नहीं किया था। उसके प्रति उसमें प्‍यार उमड़ा कि उसकी आँखें गीली हो आईं।

उसकी इच्‍छा हुई कि वह पत्‍नी को प्‍यार करे, उसके सिर पर हाथ फेरे और विश्‍वास दिलाये कि वह रामलाल जो बिना नागा उसकी कुंदी करता था, मर गया और अब वह रामलाल है जो उसे प्‍यार करना चाहता है!

यह सोचते ही वह उठ खड़ा हुआ कि पीछे से उस पर गालियों की मार-सी पड़ने लगी। किसी ने पीछे से कमीज़ पकड़कर खींची। वह किसी के सिर पर गिरा। उसके चूतड़ में ज़ोरों का दर्द उठा।

थोड़ी देर वह ज़ब्‍त किए बैठा रहा। फिर झटके से उठा मज़बूत इरादा लिए। ज़ोरों का शोर हुआ। गालियाँ उभरीं। उसने परवाह न की। चलना शुरू किया। ज़मीन पर नहीं बल्‍कि लोगों के ऊपर उसके पैर पड़ रहे थे। लोग थे कि बुरी तरह उसे कोस रहे थे, ठेल रहे थे, मुक्‍के बरसा रहे थे! और बिना चले ही थोड़ी देर में वह किनारे पर फेंक दिया गया था। बदन में बेपनाह दर्द हो रहा था लेकिन उसे परे करता वह उठा और चारदीवारी के बाहर गया।

बाहर घना अंधेरा था। रास्‍ता सूझ नहीं रहा था लेकिन उसने चलना शुरू किया। वह चला जा रहा था पर दिमाग़ में घरवाली घूम रही थी। उसने सोचा कि नाली फाँदकर बिना आवाज़ दिए वह झोपड़े में घुसेगा और पत्‍नी को बाँहों में भर लेगा। यह सोचते ही उसके दिमाग़ में यह बात उभरी कि कहीं ऐसे सलूक पर वह चीख पड़े और यक़ीन ही न करे कि मैं हूँ तो! उसने तुरंत यह बात काटी। ऐसा कैसे हो सकता है!

औंधक-नीची सड़क पर चलते हुए यकायक उसे लगा कि झोपड़ा आ गया। रुककर देखा तो किसी अनजानी जगह पर था। बेचैन हो उठा। हद्द है! कहाँ आ गया वह-सोचते हुए वह बाईं ओर मुड़ा और बढ़ा चला गया। यह जगह भी अनजानी थी! वह सोचता था कि सबसे पेंचदार काम चूना-भट्‌ठे का होता है लेकिन ये गलियाँ तो सबसे पेंचदार हैं। वह सामने की गली में मुड़ा और दौड़ने लगा। उम्‍मीद थी कि घर की लीक सूझ जाएगी पर लीक सूझ नहीं रही थी। उल्‍टे ग़फ़लत पर ग़फ़लत बढ़ती जा रही थी।

यकायक उसका दिल धक-धक करने लगा। कहीं झोपड़ा न मिला तो! नहीं, ऐसा नहीं हो सकता! झोपड़ा तो उसकी आँखों में बसा है। भुरभुरी मिट्‌टी छोड़ता, पन्‍नी, टीन-कबेलुओं से ढँका-खुला। गली का पहला झोपड़ा! वह बेतहाशा दौड़ने लगा। इस विश्‍वास से कि झोपड़ा वह खोज के दम लेगा! पर दुर्भाग्‍य! गलियों पर गलियाँ और कुलियों पर कुलियाँ पार होती गईं पर उसे अपने झोपड़े का रास्‍ता कहीं नज़र न आया। आसपास कोई था भी नहीं जिनसे वह पूछता। फिर चूना-भट्‌ठे और ताड़ी की दुकान के अलावा वह कभी किसी रास्‍ते पर गया ही न था! राशन-पानी के लिए भी नहीं! यह चिंता तो पत्‍नी के सिर थी! फिर कहाँ रहा वह अभी तक! उसके ज़ेहन में कोई ऐसा दिन न था जिसमें वह घर के किसी काम या यूँ ही, तफ़रीह के लिए अकेला या पत्‍नी के साथ निकला हो! यह सोचते ही उसका मन भारी हो गया।

थोड़ी देर बाद वह ऐसे रास्‍ते पर था जहाँ बड़ी-बड़ी इमारतें थीं जो जगमग रोशनी में डूबी थीं जिन्‍हें उसने पहली बार देखा था। एक सिपाही बड़ा-सा लट्‌ठ लिए घूम रहा था।

रामलाल ने आगे बढ़कर, सकुचाते हुए सिपाही से पूछा। मेरा घर किधर है?

सिपाही भौंचक हो उसे देखने लगा, फिर हँस पड़ा-तेरा घर किधर है? घर तेरा और मैं बताऊँ! खूब रही! सहसा गंभीर होकर उसने पूछा-कहाँ काम करता है?

- चूना-भट्‌ठे में!

- चूना-भट्‌ठे में! उसने माथा सिकोड़ा-वह तो शहर से बाहर है!

- शहर से बाहर है! रामलाल अचम्‍भे में पड़ गया। पलभर रुक कर मरी-सी आवाज़ में पूछा। उधर का रास्‍ता किधर से है?

सिपाही ने लट्‌ठ सामने ताना और कहा। बस सीधे चले जाओ, कहीं मुड़ना नहीं, चूने-भट्‌ठे पर पहुँच जाओगे।

रामलाल के चेहरे पर प्रसन्‍नता-सी छा गई। वह तेज़ क़दमों से बढ़ा बल्‍कि दौड़ने लगा। उसकी आँखों में उसका झोपड़ा साकार था। आस-पास के झोपड़े पीछे छूट गए थे, सिर्फ उसी का झोपड़ा उसके सामने था। पर यह क्‍या? उसकी प्रसन्‍नता लम्‍बी उमर न पाई। वह उदास हो गया। तकरीबन घण्‍टे पर चलने के बाद भी उसे न चूना-भट्‌ठा नज़र आया और न झोपड़े का रास्‍ता! न ही नगाड़े की किरकिर सुनाई दी जिसके सहारे वह मैदान तक पहुँच जाता। हारकर वह एक आम के धूल खाए पेड़ के नीचे बैठ गया।

यकायक उसे ठण्‍ड का अहसास हुआ और सोचने लगा कि काश वह घर पहुँच पाता और पत्‍नी को जो अब सिर्फ़ एक जर्जर कथरी भर रह गई है, प्‍यार कर पाता!

उसका दिल डूबने लगा।

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रचनाकार: हरी भटनागर की कहानी : घर कहाँ है
हरी भटनागर की कहानी : घर कहाँ है
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