चंद कविताएं -सुषम बेदी दीवार के इधर और उधर दीवार के इस ओर कुछ नियम हैं ...
चंद कविताएं
-सुषम बेदी
दीवार के इधर और उधर
दीवार के इस ओर कुछ नियम हैं
जिन्हें मानना पड़ता है
दीवार के दूसरी ओर
दूसरे नियम हैं
जिन्हें मानो या नहीं
दीवार दीखती नहीं
पारदर्शी हैं
चिनी है आसमान तलक
अभेद्य है
सुरागों पर पहरे हैं
अदृश्य
दरअसल ये हवा की दीवारें हैं
इसी से सांसों के जरिये
अब भीतर जा खड़ी हैं
लोग रात दिन
महसूसते हैं
घुटते हैं
लेकिन सांसों से मुक्ति कहां
18
भारत से बाहर भारत
सब तो वैसा का वैसा है
वही मंदिर के कलश
वैसे ही गुंबद गुरुद्वारे के
मीनारें मस्जिदों की
सिर की पंगतें
शीश नवाये भक्त
ड़र से आहत
सुखों की कामना से विचलित
हां वैसा का वैसा ही है
फिर भी कुछ तो है
कह जाता है
वैसा का वैसा तो नहीं,
क्या सचमुच वैसा का वैसा ही है
19
सही और गलत
सुनो
फैसला मत सुनाओ मुझे
सही और गलत का
सवाल पूछो
जवाब की खोज ही देगी तुम्हें वह रास्ता
कि फैसले के मंजर तक पहुंच सको
न भी पहुंचे, तो क्या
राह का अता पता तो मिलेगा
सही-गलत का कुछ अंदाज तो होगा
20
वक्त
वक्त
जिस्म की तहों में छीजता
खाल की झुर्रियों में खीझता
लील जाता है प्यार को
ड़कार जाता है रिश्ते
यादों की धूल समेटता
किताबों के पन्नों में,
पुरानी नीली चिट्ठियों में ,
पंख फड़फड़ाता
अपनी अदेखी उड़ान भर
जाने कब कहां पहुंच जाता है
जिंदगी को गूंगा करता
मौत को वाचाल
वक्त
क्यों
मुझसे, तुमसे
बड़ा हो जाता है
21
कर्मजाल
यूं तो मुझे मालूम था
कि तुम सब कुछ भूल जाओगे
कि तुम्हारी लच्छेदार बातों में होंगे
ढेर सारे आमंत्रण
वादे, वचन, आश्वासन
तुम घिर जाओगे फिर से
उन अपने जैसों से
और घेरेंगी तुम्हें
तुम्हारी जरुरतें
तुम्हारे फैलाये, ये सारे कर्मजाल
वादे, निमंत्रण, वचन, आश्वासन
उस जाल में
कुछ नये फंदे लगाकर
तुमको और बांधेंगे
जितना बांधेंगे
उतने ही मुक्त करेंगे
क्योंकि हर बांधना तुम्हें मुक्ति का एक कारण, एक बहाना देता जायेगा
कई अनचाहे बंधनों से छुड़ाता चला जायेगा
वादे, निमंत्रण, वचन, आश्वासन
सवाल, मांगें, पुकार, याचनाएं
तुम लटके रहोगे ठीक उनके बीचोंबीच
कि उनका होना ही
तुम्हें मुक्ति देता है
तुम्हारी सार्थकता है
उनके होने में
जूझने या सामना करने में नहीं
22
चेहरे
जब मुझे मालूम था
कि तुम्हारा
दिखाने का चेहरा
असली चेहरे से कुछ और होता है
तो क्यों उस देखे चेहरे को
मैं सच मान गयी
और वे सब लोग भी जो वहां मौजूद थे
कि जिन्होंने जनमत बनाया
कि जिन्होंने तुमको गद्दी पर बैठाया
क्या सचमुच वे तुम्हारा असली चेहरा
नहीं देख पाये थे
क्या वे बिन आंखों के थे
या उनको हर आईने में अपना ही चेहरा दीखता था
तुमने उनको भला सिखाया
कि तुमसे यानि कि अपने से बाहर कुछ और नहीं
कि तुमसे बाहर कोई सच नहीं
कोई इतिहास नहीं
कोई नहीं वर्तमान
न ही कोई आने वाली पीढी
भला कैसे देखते वे
कि भीड़ के चेहरे पर तीसरी आंख नहीं होती
23
मेरे ही घर में
चलो इस बार भी
तुम्हारी ही जीत हुई
मेरी हार
तुम्हारी बातों की शहद ने बहुतों को लपेटा
अपने छत्ते में समेटा
तुमने सबका रस निचोड़ा
और भी भारी हुआ तुम्हारा छत्ता
मैं मादा मक्खी
सबको बचाने के लिये
चाहे काटती दौड़ी
पर तुम तो घुसे थे मेरे ही घर में
मेरे ही छत्ते में
तुमसे भला रक्षा कैसे करती
अपनी या किसी की भी
24
सावन में: कुमायुं
बात चली सावन की
कहां नहीं होता सावन
बरखा, बारिश बरसात
कितने ही नामों से
कितने ही रूप धर
आता है सावन
कंपाता है धरती का रोम रोम
सजाता है वसुधा का अंगअंग
फूटती हैं खुशबुएं
छूटती हैं फुहारें
फुदकती हैं नदिया
फांदती कगारें
महकते हैं आंगन
बहकते हैं बादल
रसबूंद टपकाती पत्तियां
मचलती उजलाती हरीतिमा
देखे हैं सावन बारबार
कितने ही भूखंड़ों में
देखी है धरती की अनोखी पुलक
संजोया है वह रूप मन में बार बार
पर यह कैसा है सावन
कैसी बूंदें, कैसी पुहार
कि आंखों में ही उतरता है बार-बार
जुलाई 28, सुबह रामगढ में
राज नेताओं के नाम खत
मेरी हिफाजत के लिये
बाहर ठंड़ में ठिठुरता संतरी
सीमाओं पर गोलियां झेलता सैनिक
मैं बेधड़क, बेखौफ कहीं भी निकल पड़ूं
कैसे भी खतरों में
मिलेगा वह मुझे
सागर के किनारे
रेगिस्तानों में
मैदानों में
सड़कों पर
हर जगह चौकीदारी करता
सोचती हूं
क्या होगा उसकी सुरक्षा का
जो हरदम मेरी सुरक्षा को
छाती ताने
मौसम-बेमौसम से लड़ता तैनात है
क्या अपनी सुरक्षा का सवाल उसे
छोटा लगता है
या अपनी जरूरतों से अंधे हम,
उसका उठा हुआ हाथ देखते ही नहीं
क्या यह मुमकिन नहीं
कि हर कोई अपनी सुरक्षा के लिये खुद जिम्मेदार हो
कि सीमाओं के बाहर कदम ही न रखे
और रखे तो दोस्ती का ही
कि सुरक्षा के नाम पर इंसान
इंसान को खरीद न सके, बरगला न सके
कि कुछ ऐसा हो
कि सुरक्षा का सवाल ही न उठे
अदृश्य लड़की
लड़की अब दीखती नहीं
ठीक सामने बैठी है
कभी दायें या बायें
बैठ जाती है
पर किसी को दीखती नहीं
ढलते चेहरे पर उसने पोते हैं
भड़कीले रंग
बाल किये हैं लाल, नीले और जामुनी
होठों पर नारंगी लिपस्टिक की गीली, चमचमाती परत
भौहों को उजागर करती काली रेखायें
फिर भी
दीखती नहीं
कुछ बरस पहले
ऐसा नहीं था
उसके जिस्म की महक
दूर से जतला देती थी उसका होना
उसके पैरों की आहट
कि घूघत्त् बज उठते थे कितने ही कानों में
उसकी ह¬की मुस्कान कि कितना कुछ कह देती थी कितनों से
अकसर वह नहीं होती
तो भी रहती थी
अहसासों में
दीख जाती थी
क¬पना की आंखों से
अब वह चीखती है
चिल्लाती है तार स्वर में
गला जख्मी हो जाता है
लेकिन
सुनाई नहीं देती
घूमती है बाजार भर में
दो दो हाथ उठा
करती है संकेत
पैरों पर उचक-उचक
और लंबी होती है
लेकिन
दिखाई नहीं देती
यूं इस बीच
कुछ खास हुआ तो नहीं
हां कुछ लम्हों ने हाथ तो फेरा था उस पर
वक्त की कुछ हवायें
निकल गयी थीं उस पर से
बस
बस और तो कुछ नहीं
फिर लड़की अदृश्य क्यों है
दिखाई क्यों नहीं देती
तब और अब
वह सिर चढाये रहता था लड़की को
वह कंधे पर उठाये घूमता था लड़की को
वह गोद में बिठाये चूमता था लड़की को
लड़की थकी है
उसे गोद नहीं मिलती
जिस्म दुखता है
कंधा नहीं मिलता
बांहों का घेरा बनाये बैठी है लड़की
सिर गिरफ़्त में नहीं आता
लड़की को कोई हक नहीं
लड़की बन के रहने का
या तो मां बनेगी
या वेश्या
कुछ और बनने की जिद करेगी
तो सूली चढेगी
तुम्हारी याद
पश्मीने की शाल सी
रेशम की रजाई सी
जाड़े की धूप जैसी
कोमल और गरम
तुम्हारी याद
+ + +
तूश की शाल सी
नरमाई में लपेटती तुम्हारी याद
गरमाई, सेक
पिघला देता है
नये सिरे से
रोम रोम
+ + +
याद है एक चांद की तरह
जो घटता - बढता रहता है
फर्क सिर्फ इतना
कि चांद के घटने बढ़ने में एक क्रम है, नियम है,
ओर याद
क्रमहीन
नियमों को अवमानती
जब-तब आ धमकने वाली
यादों का अंतिम चरण
सिर्फ यादें हैं
और यादें
बेअंत यादें
अधाधुंध गलियां
अंधेरी खोहें
समानांतर रास्ते हैं
जो चैराहा नहीं बनते
+ + +
याद
सूरज सी
गरमी देती है
चमक
और जलन भी
+ +
तुम्हारी याद
उस फूल सी
जो अभी अभी
भोर की ओस में नहाया है
धूप के कतरे सुखा ड़ालेंगे
ओस की कनियों को
रोजमर्रा की आपाधापी की तरह
+ + +
याद के कई रंग
उजली धूप का
ऊदी बदली का
गीली हरियाली का
गुलाबी पंखुरी का
पीले पतझर का
लाल अंगारे का
काली राख का
+ + +
प्रेम के कई चेहरे
वाटिका की तापसी सीता का
नकटी शूर्पणखा का
चिरबिरहन गोपिका का
जुए में हारी द्रौपदी का
यम को ललकारती
सावित्री का
संतो की बानी: बुश की विदेश नीति
राक्षस ढूढंन मैं गया, मिला न राक्षस कोय
अपणे भीतर झांकयों, मैं ही राक्षस होय
जो मैं सो जाण्ती, हमलो कियो दुख होय
नगर ढिंढोरा पीटती, बैर करो न कोय
रहिमन पानी राखियै, बिन पाणी सब सूण
पाणी छाड़यो बूश ने, होयो खून ही खून
टोनी बुश दोउ खड़े, काके लागूं पाय
बलिहारी बुश आपने, टोनिय नाव ड़ुबाय
लाड़न पेरत जुग गया, मिला न लाड़न कोय
लाड़न-वाड़न छाड़ के, असली कामहु देख
बहुत हो लीं
बहुत हो लीं
फोन पर बातें,
बहुत हो गये
ईमेल पत्र आर-पार
तुम इन्हें आधा मिलन कहो या पौना
तुम्हारे पास बैठने का एक पल
तुम्हारा एक हल्का सा स्पर्श
जाने कितने ही खतों-फोनों को
नगण्य कर देगा
प्रेरण
जाने किसके आशीर्वाद से सिक्त होते हैं वे क्षण
जब तुम धरती हो चरण,
मेरे मानस पटल पर
बेखबर होती हूं जब तुम आती हो
पर मन का जगत न केवल जगता है
अचानक कुलांचे भरने लगता हे
कोई दिशा हो या न
ढूंढ लेता है दिशायें और दौड़ पड़ता है
कैन्द्रीभूत उजात से उन्मत्त
चाहे बिन बताये ही आती हो
फिर भी तुम्हारा आना शुभ है
शिरोधार्य है
मेरा अंतस ,
मेरा सृष्टा
कहता˙ है
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संपर्क:
सुषम बेदी 404 वेस्ट 116 सट्रीट, अपार्टमेंट 33
न्यूयॉर्क 10027
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