- यादवेंद्र शर्मा चंद्र महान जासूसी लेखक ओमप्रकाश शर्मा की अपनी अलग पहचान थी - ज़नप्रिय लेखक! यह शत-प्रतिशत सही है कि ओमप्रकाश जन-जन का लेखक ...
- यादवेंद्र शर्मा चंद्र
महान जासूसी लेखक ओमप्रकाश शर्मा की अपनी अलग पहचान थी - ज़नप्रिय लेखक! यह शत-प्रतिशत सही है कि ओमप्रकाश जन-जन का लेखक था. वह केवल भारतीय पाठकों का ही नहीं था बल्कि चीनी पाठक भी उसके बेशुमार थे. मैं जब मेरठ स्थित उसके घर गया तो देखा कि हज़ारों पाठकों के प्रेम, सम्मान, प्रश्न भरे पत्र उसके आस-पास बिखरे थे. इतनी ज़बरदस्त लोकप्रियता प्राप्त करने के बाद भी उसमें वही सादगी और सरलता थी.
मेरी मित्रता उससे बहुत पुरानी थी. जब ओमप्रकाश दिल्ली के पहाड़ी धीरज के एक मकान में किराए पर रहता था और दिल्ली क्लॉथ मिल में कामगार था. मैंने उससे पूछा था कि तुम्हें लेखन की प्रेरणा कैसे मिली? उसके पास भारी भरकम साहित्यिक उत्तर नहीं था. उसका संकेत आत्मप्रेरित-सा ही था. मुझे लगा कि तब भी उसकी संगत बुध्दिजीवियों से थी. जवाहर चौधरी उसका विशेष दोस्त था. चौधरीजी कुशल संपादक, श्रेष्ठ प्रकाशक और लेखक भी थे. चौधरी, चौधरी ज़रूर थे पर उनका रहन-सहन अभिजात वर्ग का था. बात के पक्के थे. उन्होंने एक बार कहा था. ओमप्रकाश केवल जासूसी लेखक ही नहीं है अपितु उसमें विलक्षण प्रतिभा है और वह अध्ययनशील व्यक्ति है. वह श्रेष्ठ ऐतिहासिक व सामाजिक लेखक भी हैं.
ओमप्रकाश की मकान मालकिन बड़ा शोर मचाने वाली थी. किसी हवलदार की पत्नी थी. प्रेमपूर्वक बोलना उसके वश का रोग नहीं था. वैसे ओमप्रकाश की पत्नी में भी ग्रामीण सौंदर्य था पर बोलती वह भी अपने तरीके से. झटका देकर.
तब मैं देखता कि ओमप्रकाश डी.सी.एम. की नौकरी के अलावा जासूसी उपन्यास 'गुप्ता पुस्तक भंडार' खारी बावली के लिए लिखता था. वे रंगमहल नामक पुस्तक साइज की एक मासिक पत्रिका निकालते थे. कहानी के तीन-पांच रुपए देते थे. मैंने भी उसमें पांच रुपयों में एक कहानी लिखी थी.
उन दिनों ओमप्रकाश के ख़ास मित्रों में प्रकाशक बृजमोहन पंडया, ओमप्रकाश और एक सरदारजी थे. ये तीनों पार्टनर थे और ओमप्रकाश की बड़ी इज्ज़त करते थे. इन तीनों ने मिलकर बैंग्लों रोड, जवाहर नगर में 'दिल्ली पुस्तक सदन' की शुरुआत की थी. इसी दिल्ली पुस्तक सदन ने आगे चलकर ओमप्रकाश का बहुचर्चित उपन्यास सांझ का सूरज छापा था. यह उपन्यास अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफ़र पर था और इससे ओमप्रकाश की प्रतिभा और लेखन की अलग पहचान बनी. वह काफ़ी प्रसिध्द हुआ.
मैं दिल्ली में उसके यहां भोजन के समय ही जाता था. कारण स्पष्ट था कि वहां से भोजन करके मैं सदर बाज़ार स्थित 'राजहंस प्रकाशन' चला जाता. वे मेरे प्रकाशक थे. उसके बाद पहाड़गंज जहां 'नव साहित्य' प्रकाशक था. दिन भर दिल्ली की सड़कों पर भटकता था.
जब भी जाता ओमप्रकाश कच्छा और बनियान पहने मिलता था. कुछ लिखता रहता था. उसके पास अख़बार होते थे. कभी-कभी कोई पुस्तक. उसकी लिखने की स्टाइल भी अलग थी. जब मैं मेरठ था तब भी वह कच्छा और नंगे बदन गर्मियों में उलटा लेटकर लिखता था. इस तरह लिखने में उसे आत्मसंतोष मिलता था.
ओमप्रकाश उस समय किसी न किसी अभाव से घिरा रहता था पर उसमें अखूट जीवट था. अभाव के दंशों से वह घबराता नहीं था.
उसने एक दिन कहा, ''यार! तनाव से किसी भी समस्या का कोई हल निकला है? यदि तुम्हें पैसे चाहिए तो पैसे कमाओ. जैसे मुझे पैसों की ज़रूरत होती है तो पच्चीस रुपए में अपना उपन्यास बेच देता हूं....और ज्यादा ज़रूरत हो तो उससे भी कम में?...या फिर किसी से उधार लाता हूं. शरीफ आदमी पैसा तो इन्हीं दो तरीकों से ला सकता है. मेरे जैसा लेखक चोरी नहीं कर सकता, जेब नहीं काट सकता, कपट नहीं कर सकता....हम नैतिक मूल्यों को जीते हैं न?''
वह काफ़ी हद तक नैतिक मूल्यों को जीता था. एक कामगार का आक्रोश और विद्रोह उसके स्वर में फूटता था. सर्वहारा वर्ग के प्रति उसमें गहन सहानुभूति थी. ट्रेड यूनियन के कार्यों में भाग लेता था. निष्ठा और विश्वास था उसे कम्यूनिज्म में.
कई बार उसके यहां डी.सी.एम. के वर्कर्स भी मिल जाते थे. तब उनमें पूंजीवादी व्यवस्था विरोधी वार्तालाप चलता था. हड़ताल से कितना लंबा संघर्ष लड़ा जा सकता है, उस पर विचार-विमर्श होता था.
मैं बैठा हुआ सोचता रहता कि यह खालिस जासूसी उपन्यास लिखने वाला मज़दूर नेताओं की तरह कितनी अर्थपूर्ण बातें करता है? तब मुझे यह भी लगता था कि यह जासूसी लेखन उसकी जीने की विवशता तो नहीं? नौकरी के अलावा कुछ उपार्जन करना है और यह इसी माध्यम से कमा रहा है.
मैंने उससे एक बार पूछा, ''तुम्हें कौन साहित्यकार पसंद है?'' उसने तपाक से उत्तर दिया, ''सबसे ज्यादा शरतचंद्र चटर्जी, अमृतलाल नगर, आनंदप्रकाश जैन, भगवतीचरण वर्मा आदि. नागरजी की टकसाली भाषा पर मैं मोहित हूं. इसके अलावा रवींद्र्रनाथ ठाकुर, भैरप्पा, गोर्की और सी वर्जिल जारजो का पच्चीसवां घंटा बहुत पसंद है जिसके अनुवादक भदंत आनंद कौत्यायन हैं. इतिहास के प्रति मेरी गहरी रुचि है.''
मैंने उसे पूछा, ''जासूसी उपन्यास लिखने के लिए तुम किन बातों का सहारा लेते हो?''
तब ओमप्रकाश शर्मा का नाम जासूसी उपन्यासकारों में चल पड़ा था. वह इस दिशा का सिरमौर लेखक हो गया था. उसके रेट 25 रुपयों से तीन सौ रुपए तक पहुंच गए थे. अब वह 'रतन एंड कंपनी' के लिए भी उपन्यास लिखने लगा था.
उसने मेरे प्रश्न का उत्तर सोचकर दिया. कहा, ''मैं जासूसी उपन्यास लिखने के लिए अख़बार की घटनाओं और कल्पनाओं का अधिक सहारा लेता हूं.''
मैंने उससे पूछा, ''चंद्रकांता की शैली का प्रयोग तुम अपने जासूसी उपन्यासों में करते हो?''
उसने अपने नंगे बदन पर हाथ फेरकर कहा, ''चंद्रकांता संतति में जो सस्पेंस है, उत्सुकता है, उसका प्रयोग मैं करता हूं....यदि कथानक में पाठकों को आगे क्या होगा वाली उत्सुकता न हो तो हमारा पाठक उसे पढ़ेगा नहीं. आम पाठक को सबसे पहले रोचकता चाहिए.''
''इसलिए तुमने कई चरित्रों को उपन्यासों में घसीटा है?''
''सही है. वे चरित्र पाठकों को आकर्षित करते हैं.'' ओमप्रकाश ने तपाक से कहा, ''हिंदी के आम पाठक की इच्छाएं काफ़ी अधूरी और अपूर्ण हैं. वह जैसे सिनेमा के हीरो में अपने को आरोपित करता है कि मैं ही वह हीरो हूं, उसी तरह मेरे चरित्रों में वह अपने को आरोपित करता है. यह भी सफलता का एक तरीका है.''
''तुम जेम्स हेडली चेज़ को नहीं पढ़ते?''
उसने झट से कहा, ''पढ़ता हूं पर हिंदी में मेरा तरीका उससे भिन्न है. वह सस्पेंस ज्यादा रखता है और हम रोमांच ज्यादा. पाठकों की मानसिकता हमारे देश में अलग है.''
वह अंग्रेज़ी नहीं जानता था. शायद पढ़ा-लिखा अधिक नहीं था. लेकिन उसमें अजीब प्रतिभा थी. जैसी जयशंकर 'प्रसाद' में थी. कोई कॉलेज की डिग्री नहीं लेकिन वह कथानक का ताना-बाना इतनी कुशलता से बुनता था कि पाठक इसकी रो में मंत्रमुग्ध-सा बह जाता था. वह कई बार अपने उपन्यासों में रामायण-महाभारत के चरित्रों को जासूसी बनाकर प्रस्तुत करता था. वह ऐसे वर्तमान को बताता था जो हमें प्रिय था. श्री वेदप्रकाश काम्बोज कहते हैं कि वह किसी भी विचित्र वस्तु, स्थिति और घटना को देख लेता तो उस पर उपन्यास लिख देता.
एक बार उसने कटी उंगलियां देख लीं. उसने उन्हें लेकर एक उपन्यास लिख डाला. फ़िल्मी दुनिया के संपादक और ओमप्रकाश शर्मा के प्रमुख प्रकाशक श्री नरेंद्र कुमार बताते हैं कि हम उनके उपन्यास निरंतर छापते रहते. ओमप्रकाश जी ने कहा हुआ था कि वे नए उपन्यास के नाम की घोषणा कर सकते हैं. हम कोई आकर्षक नाम की घोषणा कर देते और वह उस शीर्षक से रोचक व सटीक उपन्यास लिख देता. सोचिए, विचित्र प्रतिभा थी न उसमें.
वह अपने आप से कहता था उपन्यास ऐसा लिखो जो अंततोगत्वा मानव का कल्याण करें. बेईमानी को पराजित करें. ज्यादा तो नहीं पर पाठक थोड़ी देर तो सोचें.
ओमप्रकाश दिल्ली छोड़कर मेरठ आ गया था. वहां उसने आलीशान मकान बना लिया था. उसके बेटे महेंद्र, नरेंद्र और बिल्लू बड़े हो गए थे. बिटियां भी बड़ी हो गई थीं.
जनप्रिय प्रकाशन के नाम से उसके बेटों ने एक प्रकाशन संस्था खोल ली थी. ओमप्रकाश शर्मा जनप्रिय लेखक के रूप में सारे देश में विख्यात हो गया था. पैसा ख़ूब आने लगा. उसके नाम से पुस्तकें बिकती थी. पचास हज़ार का प्रथम संस्करण छपता था. उसने फिर दिल्ली की ओर नहीं देखा.
मैं उन दिनों अपनी पत्नी शांति भट्टाचार्य और दोनों पुत्रा विजय कुमार और कृष्ण कुमार बिस्सा के साथ मेरठ गया था. इतना नामीगिरामी जासूसी लेखक होने पर भी ओमप्रकाश के रहन-सहन और ताम-झाम में कोई तब्दीली नहीं आई थी. वही सादगी और मस्तानापन. हां, मकान काफ़ी बड़ा बना लिया था. उसमें कोई आधुनिक साजो-सामान नहीं था.
आज की सजावट भी नहीं थी. केवल सुविधाओं की चीज़ें. ज़रूरतें तुरंत पूरी होती थीं.
घर में प्रवेश के पास ही वही ओमप्रकाश शर्मा उसी कच्छा-बनियान में चटाई पर उलटा लेटा हुआ लिख रहा था. मुझे देखते ही उठकर खड़ा हो गया. गले लगाकर वह हठात बोला, ''कोई ख़बर नहीं, घर मिलने में कोई दिक्क़त तो नहीं हुई?''
मैंने प्रसन्नता से मुस्कराते हुए कहा, ''ओमप्रकाश! मेरठ में तुम्हें कौन नहीं जानता? एक दुकानदार को पूछा तो उसने ही चौंककर कहा वो ओमप्रकाश शर्मा जो जासूसी उपन्यास लिखता है.''...उसने पूरा भूगोल बता दिया.
तभी ओमप्रकाश की पत्नी आ गई. उसने झटकों के स्वर में कहा, ''चंद्रजी! पत्र तो लिखते....भाभीजी को ले आए, बहुत अच्छा लगा.'' फिर उन्होंने बच्चों पर दुलार का हाथ फेरा. वे उन्हें भीतर ले गईं.
हम दोनों बैठकर स्वास्थ्य पर चर्चा करने लगे. अर्थ के बारे में मैंने कोई प्रश्न नहीं किया कि तुम्हारे पास कितना धन है? जबकि मेरी आर्थिक स्थिति में जीवन-निर्वाह के उतार- चढ़ाव थे. उससे मेरी कोई बराबरी नहीं थी.
चाय आ गई थी.
ओमप्रकाश ने पूछा, ''क्या लिख रहे हो?''
''यही कहानी उपन्यास. कभी-कभी रेडियो-नाटक.''
''और तुम...?''
''खूब लिख रहा हूं...मेरी पुस्तकों की कई सीरीजें चल रही हैं. कई चरित्र नायकों की मैंने स्थापना कर दी है. विक्रांत...
मेजर...इंसपेक्टर....''
''यार! इतना तुम कैसे लिख लेते हो?''
''चंद्र! लिखना जैसे मेरी फ़ितरत हो गया है. तुम आश्चर्य करोगे कि एक के बाद एक प्लाट मेरी खोपड़ी में आते रहते हैं. जैसे कोई कहानी कहने वाला कंप्यूटर हो दिमाग़ में. कभी कोई नायक या खलनायक दिमाग़ में आ जाता है और कभी घटनाएं और कभी रहस्य. तुम्हें शायद विश्वास नहीं होगा कि मैं लिखता भी अजीब से कभी भी भूल नहीं होती.''
''दुबारा पढ़ते हो?''
''नहीं भाई, नहीं, लिखा और छपने को दे दिया.''
ओमप्रकाश में यह विलक्षण प्रतिभा थी. अविश्वसनीय, मुझे उसके पास रहने पर पता चला. वह जो भी साहित्य पढ़ता था, वह श्रेष्ठ हिंदी साहित्य होता था. लिखता जासूसी उपन्यास और पढ़ता साहित्यिक-ऐतिहासिक उपन्यास!
मैंने पूछा, ''आजकल कितने उपन्यास लिख लेते हो?''
उसने बेहिचक बताया कि एक माह में दो. हम निरंतर लिखने वालों पर चाहे कोई हल्का-फुल्का फतवा जारी कर दें, पर ओमप्रकाश ने यह निर्विवाद रूप से कहा कि वही निरंतर लेखन कर सकता है जो केवल लेखक है, प्रतिभावान है और जिसमें लिखने की क्षमता है. लिखना हर कोई के वश की बात नहीं है.
खाने के लिए उसने मेरी पत्नी को बुलाकर कहा, ''भाभीजी! खाना आप बनाएंगी. दाल-बाटी. जिस चीज़ की दरकार है, वह आप मंगवा लीजिए.''
पत्नी ने कहा ठीक है. मैं दैनिक कार्यों से निवृत होने के लिए चला गया. वह फिर लेखन में डूब गया.
भोजन स्वादिष्ट बना था. पंचमेल की दाल और बाटी. बाटी का मीठा-चूरमा ऊंधावणा घी यानी घी से थाली तरबतर.
इतना खाया कि तृप्ति हो गई. उसने मेरी पत्नी का आभार माना.
तीन दिन हम रहे. इन तीन दिनों में मैंने देखा कि कितने ही अख़बारों और पत्रा-पत्रिकाओं में उस पर आलेख छपे हैं. उसके लेखन की प्रशंसाएं ज्यादा छपी हैं. अनेक पाठकों ने उन्हें प्रशंसा के पत्रा लिखे थे. पाठकों में वृध्द, युवा और युवतियां तक थीं. उन पत्रों को पढ़कर मुझे भी सुखद अहसास हुआ. उनमें कुछ पत्र सुझावात्मक भी थे.
ओमप्रकाश में किसी बात की हड़बड़ी नहीं थी. मैंने पूछ लिया कि तुम्हारे समकक्ष जो दूसरे लेखक उभरने लगे हैं वे क्या तुम्हारी पुस्तकों की सेल कम नहीं करेंगे?
उसने उत्तर देने में कोई हड़बड़ी नहीं की. शांत स्वर में कहा, 'किसी समय चांदनी चौक में घंटेवाला एक मिठाई वाला था, अब कितने हैं. हल्दीराम की दुकान पर भीड़ लगी रहती है. इसका मतलब यह नहीं है कि दूसरे दुकानदारों की मिठाई नहीं बिकती? माल के अनुसार बिक्री होती है. हम लोग महान साहित्यकार नहीं हैं. लोकप्रिय साहित्यकार हैं. जन-जन के प्रिय साहित्यकार हैं....जो जासूसी लेखक अभी उभरे हैं, प्राय: वे मेरे शिष्य हैं....एक बात और कहूंगा, आज गुलशन नंदा की लोकप्रिय लेखकों में तूती बोलती है पर यह भी सच है कि प्यारेलाल आवारा, रानू, गोविंद सिंह, दत्त भारती भी बिकते हैं. आश्चर्य की बात यह है कि ट्रेड नाम जैसे कर्नल रंजीत, राजवंश मनोज और रणजीत भी बहुत बिकते हैं.
''इनका भविष्य?''
वह हँस पड़ा. विश्वासपूर्वक बोला, ''भविष्य को मैं तो नहीं देखता. मेरा वर्तमान शानदार है.''
''लोग कहते हैं, आपको लोग भुला देंगे?''
''मरने के बाद भुलाते हैं तो भुला दें. मरने के बाद अमरता और समृध्दि किसने देखी है? प्रेमचंद के बेटे आज धन्ना सेठ हैं. पर प्रेमचंद तो देखने नहीं आता. शरतचंद्र देश के महान लेखक हो गए, शरतचंद्र की आत्मा को भला इसका क्या अहसास है? यह भी मृगमरीचिका है. लेखक अमर होता है पर उस अमरता का फायदा बेचारा लेखक क्या जाने? आप बता सकते हैं कि हिंदी में कोई भी ऐसा लेखक है जिसने लाखों रुपयों की रायल्टी ली हो और जो दिल्ली आता है मुंबई से, तो बड़े-बड़े प्रकाशक एरोड्रम पर उपस्थित होते हों? वह केवल गुलशन नंदा है....मेरी हर पुस्तक की पचास हज़ार प्रतियां छपते ही बिकती हैं. हम अपने को प्रेमचंद और शरत्चंद्र नहीं कहते. हम लोकप्रिय लेखक हैं. हमारा 'आज' बहुत ही सुखी और सुंदर है.''
ओमप्रकाश उत्तोजित हो गया था. बोलकर वह ख़ामोश हो गया. सन्नाटा पसर गया. बोला, ''चलो, फ़िल्म देखकर आएं.''
हम दोनों कपड़े बदलकर फ़िल्म देखने चले. मुझे आश्चर्य हुआ कि वह मुझे अंग्रेज़ी फ़िल्म दिखाने के लिए ले गया. मुझे आज भी उसका नाम याद हैक़िलर्स.
वह भूत-प्रेतों की भयानक और प्रभावशाली फ़िल्म थी. डरावनी ज़रूर थी पर रोमांचित करती थी बार-बार. वह फ़िल्मों के संवाद नहीं समझा पर कहानी का अनुमान ज़रूर लगा लिया.
रात को आकर भोजन किया और सो गए.
एक शौक ओमप्रकाश शर्मा में और था : फुटबाल देखने का. दिल्ली में डूरंड फुटबॉल मैचों को वह लगातार देखता था. उसके साथ अन्य जासूसी लेखक वेदप्रकाश कांबोज होता था. कभी-कभार मैं.
हम सब मूंगफलियां तोड़-तोड़कर खाते रहते थे और फुटबॉल के खेल पर अपनी अपरिपक्व टिप्पणियां करते रहते थे. परिणाम प्राय: हमारे क़यास के विरुध्द ही निकलता था.
मैंने उससे पूछा, ''आजकल दिल्ली फुटबॉल देखने जाते हो?''
''नहीं भाई. मेरठ आने के बाद दिल्ली जाना छोड़ ही दिया. मैच देखना तो दूर रहा, कभी दिल्ली के प्रकाशक का कार्यालय ही नहीं देखा. महानगर की ओर मुख करने का मन ही नहीं करता.'' वह महानगर की आपाधापी और आत्मीय अजनबीपन से घबरा गया था. वह शांत चित्ता और कछुआ चाल जीवन जीना चाहता था अत: मेरठ में मस्त था.
मैंने उससे पूछा, ''तुम जिस छुरें भोंकने वाली महानगरी संस्कृति की संबंधहीनता से भागते हो, वह तुम्हारे उपन्यासों में फिर क्यों होती है?''
वह हँस पड़ा...नि:शब्द हँसी. बोला, ''यह मेरे लेखन-पेशे की मजबूरी है. आज पाठकों को किसमें मज़ा आता है, उसे क्या परोसा जाए, इस नब्ज को पहचानकर हम लिखते हैं. मैं सच कहता हूं कि मैं अपने लेखन के प्रति जितना ईमानदार हूं उतना ही पाठकों के प्रति भी अपने दायित्व को समझता हूं....दोस्त! मेरे पास समस्त सुविधाएं जुटाने के साधन हैं पर मुझे जिसमें सुख मिलता है, मैं वही करता हूं.'' वास्तव में तब ओमप्रकाश काफ़ी संपन्न हो गया था. पर वही चटाई, कच्छा और बनियान. कभी-कभी नंगे बदन!
मेरठ से लौट आने के बाद मैं अपने जीवन-संघर्ष में इतना व्यस्त हो गया कि उससे संपर्क नहीं रख सका.
हालांकि दिल्ली के कई पॉकेट बुक्स वाले उसकी चर्चा करते रहते थे. विशेषत: फ़िल्मी दुनिया का संपादक और सुमन पॉकेट बुक्स का स्वामी नरेंद्र कुमार. वह प्राय: ओमप्रकाश शर्मा के बारे में कहा करता था, ''वह जासूसी लेखक है पर उसका अन्य ज्ञान ग़ज़ब का है. वह विश्व की अच्छी पुस्तकें पढ़ता है. वह किसी से पैसे लेकर हज़म नहीं करता. लेन-देन में सच्चा है. ऐसी ईमानदारी संपर्क में आए लेखकों में मैंने कम देखी है.''
उसकी पुस्तकें धड़ाधड़ छप रही थीं. उसने लगभग चार सौ पचास पुस्तकें लिखीं. हिंदुस्तान के कोने-कोने में उसके पाठक थे.
सारे सिलसिले समाप्त हो जाते यदि मेरे लेखक-पुत्र यानी विजयकुमार-कृष्णकुमार उन्हें फोटोफेयर 1998 का आमंत्राण नहीं भेजते. वैसे वे अब खालिस व्यापारी हैं पर व्यापारी होने के पूर्व विजयकुमार बिस्सा बाल-साहित्य का लेखन कर रहा था और कृष्ण कुमार बिस्सा 'चंद्र' की 'साठोत्तारी हिंदी उपन्यासों में राजनैतिक चेतना' पुस्तक काफ़ी लोकप्रिय हुई. तो ओमप्रकाश शर्मा को आमंत्राण-पत्र मिला. यह फ़ेयर मुंबई में होना था. न जाने ओमप्रकाश मुंबई का नाम सुनते ही क्यों अजीब-सी बौखलाहट से घिर गया.
उसने मुझे 21-3-98 को पत्र लिखा कि यह श्रेय युवा पीढ़ी को ही जाता है कि उसने दो बूढ़ों के बीच संपर्क करा दिया. मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि जब इंसान बूढ़ा हो जाता है तो वह अपने आप में सिमट जाता है या स्वयं अपने से लड़ने लगता है. मैंने विजयकुमार को जो पत्र भेजा था, वह उसके द्वारा फोटोफेयर का निमंत्रण पत्र भेजे जाने पर लिखा था. वैसे मैंने सच ही लिखा है कि बंबई (मुंबई) मेरे कई मित्रों को निगल गई. उर्दू के लोकप्रिय उपन्यासकार आदिल रशीद मुंबई में अपने बेटों को जमाने गए थे क्योंकि उन्होंने लखनऊ में आठ कमरों का मकान अपने साले की तिकड़म से मात्रा अट्ठाइस रुपयों में कबाड़ लिया था....मैं भी आदिल रशीद को जानता था. वह अपने को लोकप्रिय लेखकों में बड़ा समझता था और पॉकेट बुक्सवालों के चक्कर निकाला करता था. वह एक बार हिंदी में भी खूब छपा था. फिर वह मुबई चला गया जहां ओमप्रकाश शर्मा के शब्दों में एक रात दारू-मांस खाकर लौटते समय उसे हार्ट-अटैक हुआ. रात को लगभग एक-दो बजे थे. उसने टैक्सी वाले से के.ई.एम. हस्पताल चलने के लिए कहा. उसने मना कर दिया. इसी उहापोह में उसका देहांत हो गया. अमृतलाल नागर के भाई रतनलाल नागर जो साउंड स्टूडियो में फोटोग्राफर थे, तीन दिनों की बीमारी में चल बसे. उसने अपने कई और मित्रों के नाम गिनाए.
मैंने अपने पत्र में उसे लिखा कि मुंबई महानगर केवल निगलती नहीं बल्कि कई बार ऐसे वरदान देती है कि आदमी कहां से कहां पहुंच सकता है. क्या दिल्ली-मेरठ में आदमी गुमनामी के अंधेरे में नहीं खोता? यह सब परिस्थितिजन्य है. मैं इसे अंधविश्वास मानता हूं.
मैंने जब उससे पूछा कि तुम भी बहुत लोकप्रिय हो पर तुम्हारे उपन्यासों पर फ़िल्में क्यों नहीं बनतीं?
उसने बताया कि वह इस ओर ज़रा भी प्रयत्नशील नहीं है. कई लोग चाहते भी हैं कि वे मेरे उपन्यासों पर काम करें पर उस समय मुझमें अजीब-सी उदासीनता भर जाती है और साहित्यिक रचनाकारों वाली अकड़ जाग्रत हो जाती है. ऐसे मत काटो, इस चरित्र को मत बदलो, क्लाइमेक्स यही रहने दो.
मेरठ के एक धन्ना सेठ सत्येन पाल चौधरी ज़ो प्रकाश मेहरा को फाइनेंस किया करते थे, उन्होंने मेरे उपन्यास धड़कन पर फ़िल्म बनना तय कर लिया. मुंबई बुलाया. मैं नहीं गया. इजाजत दे दी. अनुबंध नहीं किया. चैक आया ले लिया. एक दिन वासु चटर्जी आए. उन्होंने पटकथा बताई. उन्होंने पटकथा व अतिरिक्त डायलॉग लिखे थे. मुझे बासु चटर्जी की फ़िल्में पसंद थीं. एक निर्देशक के रूप में मैं उनका सम्मान करता था. मैंने स्वीकृति दे दी. उस उपन्यास पर 'चमेली की शादी' नाम से फ़िल्म बनी. चली भी फिर टी.वी. चैनलों पर आती रही.
''गुलशन नंदा की तो कितनी ही फ़िल्में बनीं. फिर तुम्हारे उपन्यासों पर धड़ाधड़ फ़िल्में क्यों नहीं बनीं?''
ओमप्रकाश गंभीर हो गया. बोला, ''बन जाती. यदि मैं नंदा की तरह मार्केटिंग करना जानता. कई बातें तो मेरी इसलिए फ़ेल हो गईं कि मैंने मुंबई जाने से साफ़ इंकार कर दिया. चंद्र! दिल्ली छोड़ने के बाद मैंने एक लेजी-जीवन जिया है. कहा न, दिल्ली भी जाना छोड़ दिया.''
उसने सोचकर फिर कहा, ''एक बात बताऊं कि जासूसी उपन्यास लिखने के बावजूद मुझमें एक श्रेष्ठ साहित्यकार की आदतें हैं. अच्छा लेखक, वह भी हिंदी का, फ़िल्म लाइन में ज्यादा क्या, पचास प्रतिशत भी सफल नहीं हुआ...तुम्हें बताऊं नंदा एकदम फ़िल्मी हो गया. जो लिखा उसमें वह निर्देशक कहे अनुसार बदलाव करता रहेगा. मुझे यह भी अधिक पसंद नहीं. दिमाग़ केवल लिखना ही चाहता है. धन...धन...धन...बनिए टाइप के आदमी को क्या पता, वह क्या छोड़कर जा रहा है. सात पीढ़ी के लिए धन...छोड़ जाना क्या महत्तवपूर्ण है? या कुछ इतिहास. कुछ अच्छे कर्म.''
मैंने उससे दुबारा मेरठ जाने पर पूछा, ''प्रेमचंद और शरतचंद के बीच तुम किसे महान समझते हो?''
मैंने सोचा कि वही रटारटाया उत्तार कि दोनों. पर मैं स्वयं तनिक स्तब्ध रह गया, उसका उत्तार सुनकर. उसने कहा प्रेमचंद को ध्यान से पढ़ोगे तो जानोगे कि वह एक
ऐसा कायस्थ था जिसका संपूर्ण साहित्य ब्राह्मण विरोधी था जबकि ब्रिटिश युग में ब्राह्मण भी साधारण प्रजा था. आज तो कुछ है ही नहीं.''
फिर मैंने उसे एक पत्रा लिखा कि मैं प्रेमचंद पर तुम्हारे विचार से सहमत नहीं हूं. उसने 27-4-98 के पत्र में मुझे लिखा प्रेमचंद के बारे में जो मैंने लिखा, वह एकदम सत्य है. पर सिलसिला बहुत पहले शुरू हो गया था. गंगा पुस्तक माला के संचालक दुलारेलाल भार्गव ने प्रेमचंद को छापा था. उनकी पुस्तकों के कॉपीराइट उनके पास थे. अंधेरे के दीप उपन्यास पढ़कर वे मेरा एक उपन्यास रॉयल्टी पर छापना चाहते थे. उन्होंने दिल्ली से भी रंगभूमि छापा था. वे एक दिन साइकिल पर गट्ठर बांधकर जा रहे थे. रंगभूमि भेंट की...पढ़ रखी थी मैंने.
रांगेय राघव से बाद में भेंट हो गई. वे मुझसे नाराज थे. क्योंकि उन्होंने एक लेख में भगवतीचरण वर्मा के टेढ़े-मेढ़े रास्ते का विरोध किया. तब मैंने उन्हें लिखा कि वर्माजी की कोई भी राजनैतिक आस्था नहीं. उन्होंने तो कांग्रेस और कम्यूनिस्टों दोनों को लताड़ा है.
रांगेय राघवजी ने मजाक में कहा, ''अब मैं जासूसी उपन्यास लिखूंगा.''
''अभी तो मैं अंधों में काना सरदार हूं. आप इस क्षेत्र में आएंगे तो मुझे किसी और काम की तलाश करनी होगी.''
हम एक रेस्त्रां में आ गए. रांगेय राघव ने पूछा ओम! रंगभूमि पढ़ोगे. उसने कहा पढ़ा हुआ है.
डॉक्टर साहब ने कहा उस उपन्यास में औद्योगीकरण का विरोध है. क्या भारत बैलगाड़ी युग में सदैव रहेगा. फिर बात बदलकर बोले पूरा हिंदी साहित्य जाति भेद के ऊपर है परंतु प्रेमचंद की क्या ब्राह्मण भैंस खोलकर ले गए जो वह ब्राह्मण विरोधी हैं.
ओमप्रकाश ने लिखा कि डॉ. रांगेय राघव की मृत्यु पर उनकी बात याद आई. संपूर्ण प्रेमचंद साहित्य ख़रीदकर पढ़ा. बात सौ फीसदी सही थी. आप चाहें तो प्रेमचंद को दुबारा पढ़ लें. या केवल कहानी 'सद्गति' और 'मोटेराम शास्त्री' पढ़ लें.
इससे यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि ओमप्रकाश शर्मा लिखता ज़रूर था ज़ासूसी उपन्यास, पर उसे श्रेष्ठ साहित्य का ज्ञान था. उसने एक बार बताया कि शरतचंद्र के बारे में पुनर्विचार होना चाहिए. हालांकि उनमें भी प्रेमचंद वाली एक कमजोरी रही कि बंगाल में बिहारी और उड़िया लोगों को केवल नौकर के रूप में देखा. जैसा देखा वैसा लिख दिया. पर मैंने काफ़ी सोचा-समझा तब पाया कि उनमें दुर्भावना बिल्कुल नहीं थी. यह भ्रम शायद श्रीकांत के चरित्र के रूप में टूटता है जब वह साधु बनकर इलाहाबाद की ओर जाता है. उसे शीतला बुखार होता है और बंगाली परिवार जगह नहीं देता और बिहारी रेलवे कर्मचारी उसे रहने के लिए जगह देता है. वस्तुत: शरतचंद्र अपने परिवार और परिवेश की सच्चाई और उसके भविष्यवक्ता के रूप में दूरगामी निर्णय ले लेता था, अन्य के मामले में वह असफल था.
वह कई बार सैध्दांतिक चर्चा कर लेता था. एक बार समाजवाद पर चर्चा चली तो उसने कहा, ''यथार्थ और समाजवादी यथार्थ में अंतर है. सन् 61 में सोवियत लिटरेचर मास्को से प्यौत्रा ज्दानोव का एक लेख छपा थायथार्थ जो वह हुआ और समाजवादी यथार्थ वह है जो होना चाहिए था. इस कथन का स्वागत किया....यहां ज्दानोव के समर्थन में वाराणसी के कथाकार जिसे द्विजेंद्रनाथ मिश्र निर्गुण ने लेख लिखा तो वाराणसी में मैंने उन्हें कहा, आपको ज्दानोव याद रहे और शरतचंद्र को भूल गए! जो बहुत समय पूर्व अपने साहित्य में यह साबित कर चुके हैं.
निर्गुणजी ने बुझे स्वर में कहा आप ठीक कहते हैं.
ओमप्रकाश शर्मा शरत के फ़ैन थे. शरत साहित्य के अलावा वह बंगाल की सामाजिकता का भी ध्यान रखता था. उसने मुझे लिखा बंगाल (तब बंगलादेश भी शामिल था) से प्रकाशित गजेटियर के अनुसार पुरुषों की संख्या चालीस प्रतिशत और स्त्रियों की संख्या साठ प्रतिशत है. डॉक्टर ग्रेवाल्टर के अनुसार बंगाल में ऐसा इस कारण है कि मच्छर का प्रभाव इतना स्त्रियों पर नहीं होता जितना जानलेवा पुरुषों पर होता है.
मैंने उसे लिखा है कि भाई तुम्हें बड़ा ज्ञान है.
वस्तुत: ओमप्रकाश में पढ़ने की भयंकर आदत थी.
उसने कहा कि जब शरत लिखना आरंभ करते हैं तब बंगाल कुरीतियों व दोषों से भरा हुआ था. मेरा मानना है कि जो कुछ भी उन्होंने लिखा तथ्य के विपरीत लिखा और खूब लिखा. बंगाली समाज को एक आदर्श और पवित्रा सुगंध से भर दिया. उसने यह भी बताया कि श्रध्देय अमृतलाल नागर ने बताया कि वे शरत से मिलने कलकत्ता पहुंचे. तब वे वहां नहीं मिले. उन्होंने रूपनारायण नदी के किनारे गांव में मकान बना लिया था. कीचड़ भरा रास्ता और सात मील पालकी का रास्ता, परंतु उनसे जब भेंट हुई तो सफ़र की सारी थकावट दूर हो गई. सहज और खुलेपन का सम्मान. सच हम सब शरत के देश के लेखक हैं.
मैंने उससे चाय पीते हुए पूछा, ''ओमप्रकाश! अन्य लेखकों के बारे में तुमहारी क्या राय है?''
''अज्ञेयजी विचारशील लेखक हैं, पर उनके लेखन का आरंभ अनुवाद से हुआ. शरत के उपन्यास श्रीकांत का जर्नी ऑफ श्रीकांत और जैनेंद्रजी के त्यागपत्र रेजीग्नेशन से....नागार्जुन अक्खड़ कवि है. मुक्तिबोध दुरूह हैं. नरेश मेहता की शैली मुझे पसंद है. अमृतलाल नागर मुझे बेहद प्रभावित करते हैं. तुम बुरा मत मानना राजेंद्र यादव और नामवर सिंह को मैं किसी भी गिनती में नहीं गिनता....अब 74 का हो रहा हूं. 14 मई को विवाह की 54वीं वर्षगांठ है, किसी पुराने मित्र को बुलाता हूं....पूरा दिन पुरानी यादों व ठहाकों से बिताता हूं.''
''हम सब जीवन से दूर और मृत्यु के नज़दीक जा रहे हैं. क्या यह बात तुम्हें उदास नहीं करती?''
''कतई नहीं. मृत्यु सत्य है. उसे हमारी क्या, समस्त संस्कृतियों में पर्व की तरह मनाते हैं. कहानी है, छोटी-सी कहानी नगर शीराज में एक सूफ़ी रहता था. एक बार ज्योतिषी ने उसे आकर कहा कि तुम्हारे जीवन के चार दिन शेष हैं. यह सुनकर वह व्यक्ति नाचने लगा. ज्योतिषी चौंका...यह क्या? मृत्यु की ख़बर सुनकर तुम नाच रहे हो?
नाचते हुए सूफ़ी ने कहा, मैंने जीवन में हर सुख का आनंद लिया है तो क्या जीवन का अंत सुखद घटना नहीं? कौन ऐसा है जो संसार में आकर गया नहीं? जीवन के अंत को उल्लासमय बनाना चाहिए.
''राजनेताओं के बारे में तुम्हारा क्या ख़याल है?''
ओमप्रकाश कुछ देर तक सोचता रहा. फिर बोला, ''नेहरू संवेदनशील व साहित्यिक व्यक्ति था. उसके बाद कोई लेखक व भारत का प्रधानमंत्री संभवत: नहीं होगा.''
मैंने पूछा, ''वाजपेयीजी?''
''मैं उसे कवि नहीं तुक्कड़ मानता हूं. कवि बनने के लिए जो साधना, चिंतन-मनन चाहिए, वह वाजपेयीजी के पास कहां? उपन्यासकार बनने के लिए नरसिंहराव के पास वह श्रम साधना कहां? हां, भूतपूर्व शिक्षा मंत्री प्रतापचंद्र 'चंद्र' ज़रूर सही मायनों में उपन्यासकार थे (हैं).''
वह अत्यंत भावुक हो गया. अनगिनत विभिन्न तबके के लोगों के प्रशंसा-पत्रों से घिरा ओमप्रकाश अपने आपसे अजनबी होता हुआ बोला, ''मैं तो भाई लिखने की फैक्टरी हूं. कुल मिलाकर उपन्यासों की संख्या 450 है. हिंदी व अंग्रेज़ी समालोचनाओं की कटिंगें भी हैं. कभी रूसी पाठक भी मिला....लेकिन इसके बाद क्या? फिर भी सोचता हूंवैरी गुड.''
आज इस संसार में ओमप्रकाश नहीं है. लेकिन जिसने इतना लिखा है, जिसके अनगिनत पाठक हैं, उसकी स्मृति को आप सदा-सदा के लिए नहीं मिटा सकते.
उसने अत्यंत ही पीड़ा से कहा था ओमप्रकाश शर्मा की यादें मिट भी जाएंगी तो क्या? वह अमर भी नहीं हुआ तो क्या? अरे दोस्त चंद्र, आज का पाठक तो पहाड़ी, इलाचंद्र, प्रताप नारायण मिश्र, मानव, भैरवप्रसाद गुप्त जैसी हस्तियों को कहां याद करता है?
यहां आउट ऑफ साइट तो आउट ऑफ माइंड. यह देश बौना है.''
उसकी यह बात विचारणीय है.
****.
रचनाकार – यादवेंद्र शर्मा चंद्र हिन्दी के वरिष्ठ रचनाकार हैं. आपने भी हिन्दी साहित्य में धुँआधार लिखा है. वर्तमान रचनाकारों में, हिन्दी में सर्वाधिक लिखने वालों में पहला नाम संभवतः यादवेंद्र का ही होगा.
Ravi jii,
जवाब देंहटाएंis lekh ko prakaashit karane ke liye dhanyawaad. isase bahut saarii yaade.N taazaa ho gayee.M. mujhe do jaasuusii upanyaaskaaro.N ke naam yaad hai.N jinhe.N mai.N bachapan me.N paDhaa karataa thaa: Om Prakash Sharma aur M.L. Pande. Sharma was by far the better of the two. "saanjh kaa suuraj" shaayad "manohar kahaaniyaa.N" me.N dhaaraavaahik prakaashit huaa thaa jisake kuchh instalments mai.N ne paDhe the. kyaa aap bataa sakate hai.N ki yah upanyaas kahaa.N se mil sakataa hai?
ravi ji,
जवाब देंहटाएंis lekh ko prakaashit karane ke liye dhanyawaad. mai.N bachpan me.N om prakaash sharmaa ke upanyaas paDhaa karataa thaa. "sanjh kaa suuraj" mere khyaal me.N "manohar kahaniyaa.N" me.N dhaaraawaahik prakaashit huaa thaa. mai.N ne kuchh kistiyaa,M paDhii.N thii.N. jo paDhaa thaa bahut baDhiyaa thaa. aap ko maalum hai ki yah upanyaas kahaa.N mil sakataa hai?
गुप्त जी,
जवाब देंहटाएंमैं भी किशोरावस्था में द-एक्जीक्यूशनर का हिन्दी अवतार विक्रांत यानी ओमप्रकाश शर्मा का पाठक रहा हूँ.
इस उपन्यास को मैं तलाश रहा हूँ, अता पता लगते ही आपको सूचित करूंगा.
बहरहाल, उस उपन्यास में ऐसा क्या खास है जो आपको अभी भी याद है और आपको वह अब भी चाहिए?
एक अनुरोध है - अगर उसका कथानक आपको याद हो, तो अपने ब्लॉग पोस्ट पर या रचनाकार के लिए एक संस्मरण ही लिख डालिए!
vikrant ke naval to om prkash sharma ji ke nahin the vo to jali the un ke to rajesh,jayant,jagat,jagan, gopali adi ke the.
हटाएंsubhashchandar azad bharti
xqIrk th]
जवाब देंहटाएंtufiz; ys[kd vkseizdk’k ‘kekZ (esjs firk) ds fo”k; esa Jh ;knosUnz ‘kekZ pUnz th ds fy[sk ys[k dks bUVjusV ij iksLV djus ds fy, eSa vius ifjokj dh vksj ls vkidk vkHkkjh gawA ‘kekZ th ls lEcfU/kr vkSj tkudkfj;ka eSa ‘kh?kz gh vkils lk>k d#axk A
bl ys[k ds ‘kh”kZd ds ckjs esa eSa Li”V djuk pkgwaxk fd ‘kekZ th us cksuksa dk ns’k uke ls dksbZ miU;kl ugha fy[kk gSA vxj vki cksuksa dk ns’k gVk dj lka> dk lwjt ‘kh”kZd esa tksMsaxs rks eSa vkHkkjh jgwaxkA bl ys[k esa of.kZr muds ik= fodzkUr ds ckjs esa Hkh eSa dguk pkgwaxk fd ;g ik= ‘kekZ Tkh dk ik= ugha gS A ;g ik= ‘kekZ th ds uke ls udyh miU;kl ys[kdksa }kjk x<k x;k ik= gSA ‘kekZ th ds jps x;s yksdfiz; ik= Fks jkts’k] t;Ur]txr] txu] xksikyh bR;kfnA ;gka ;g dguk fnypLi gksxk fd ‘kekZ ds uke ls brus udyh miU;kl izdkf’kr gq, gSa fd ;g ,d fo’o fjdkMZ gks ldrk gSA
ohjsUnz ‘kekZ
74] dY;k.k uxj] esjBA
Do you have a list of books written by your father and copy of all ?
हटाएंगुप्ता जी,
जवाब देंहटाएंजनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा ;मेरे पिता के विषय में श्री यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र जी के लिखे लेख को इन्टरनेट पर पोस्ट करने के लिए मैं अपने परिवार की ओर से आपका आभारी हूं। शर्मा जी से सम्बमन्धि्त और जानकारियां मैं शीघ्र ही आपसे साझा करुंगा ।
इस लेख के शीर्षक के बारे में मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि शर्मा जी ने बोनों का देश नाम से कोई उपन्यास नहीं लिखा है। अगर आप बोनों का देश हटा कर सांझ का सूरज शीर्षक में जोडेंगे तो मैं आभारी रहूंगा। इस लेख में वर्णित उनके पात्र विक्रान्त के बारे में भी मैं कहना चाहूंगा कि यह पात्र शर्मा जी का पात्र नहीं है । यह पात्र शर्मा जी के नाम से नकली उपन्यानस लेखकों द्वारा गढा गया पात्र है। शर्मा जी के रचे गये लोकप्रिय पात्र थे राजेश, जयन्त,जगत, जगन, गोपाली इत्यादि। यहां यह कहना दिलचस्प होगा कि शर्मा के नाम से इतने नकली उपन्यास प्रकाशित हुए हैं कि यह एक विश्व रिकार्ड हो सकता है।
वीरेन्द्र शर्मा
74, कल्यारण नगर, मेरठ।
ap ka kathan sahi hai ki sharmaji ke nam ki bahut nakal hui thee.
हटाएंDear Virendra,
हटाएंI am an admirer of your father. His works are a source of inspiration and solace to me. As my tribute to this great writer, I have initiated a website in his name i.e. www.omprakashsharma.com. I very humbly invite you to please visit the site and post your comments to me. I also request you to please provide me photographs of shri Shrama ji and his family members for placing it on the website.
with warm wishes,
Truly yours,
Ramakant.
aadarniya shri Chandraji /guptaji,
जवाब देंहटाएंaapka lekh padte he maine apni Mummy ko phone lagaya aur aapke baare mein poochha...toh jikra Daal-baati ka, aap sab doston ki mehfil ka aur aapki patni ke karmath swabhav ka hua....swargiya shri Om Prakash sharmaji mere nanaji ek mahaan lekhak he nahin balki ek mahaantam vyakti bhi thay.aaj unke jeewan ke baare mein itni saari charcha karke meri aankhon ke ghuma diya....maine apne jeevan ke kaafi mahetvapoorn varsh unke saath bitaaye hain...unke jeevan ke akhiri saalon mein main unke saath he thi....unke saath din bitana maano koi atyant gyan se bhari kitaab padne ke baraabar tha....aur maine yeh kitaab saalon tak padi...bahut dukh hota hai yeh sochkar ki jitne achche insaan woh thay unke jeevan ka akhiri waqt kaafi kashtdaayi beeta...unhe liver cancer ho gaya tha jo akhiri dino mein poore shareer mein fell gaya tha...meri naani aaj bhi har waqt unhe yaad karti hain....bhale aaj aapke is lekh ne mujhe phoot phoot kar rula diya...per unhe yaad karna apne aap mein ek halka karne wala ehsaas de jaati....aapka bahut bahut dhanyawaad.
Juhi
Gurgaon
9899114679
Respected Neha ji,
हटाएंI am an admirer of your Nanaji. His works are a source of inspiration and solace to me. As my tribute to this great author, I have initiated a website in his name i.e. www.omprakashsharma.com. I very humbly invite you to please visit the site and post your comments to me. I have tried to contact you over phone (on the number given above) but I was told that it is wrong number. I request you to please provide me photographs of shri Shrama ji and his family members for placing it on the website.
with warm wishes,
Truly yours,
Ramakant.
रवि जी, बहुत अच्छा लगा इस पोस्ट को पढना.
जवाब देंहटाएंविक्रान्त हमारे शर्मा जी का पात्र नहीं था.
और चमेली की शादी के अलावा भी शर्मा जी के उपन्यास पर एक फिल्म बनी थी, उनके मरने के बाद जिसका क्रेडिट उन्हें नहीं मिला
शायद उपन्यास था "अपने देश में अजनबी"
और फिल्म थी स्वदेश, शाहरुख खान अभिनीत
शर्मा जी ने आगरे के जनकवि नज़ीर अकबराबादी पर एक उपन्यास लिखा है, "दूसरा ताजमहल", मेरी निगाह में तो ये उपन्यास एक अच्छा साहित्यिक रचना है. जासूसी उपन्यासों की भीड़ में इनके एसे कई रचनायें गुम हो गईं
जवाब देंहटाएंkhoon ki sus bunde un ka ehastik naval tha bada shandar laga tha mere ko.
हटाएंमैं ने शर्मा जी की दो सौ से अधिक पुस्तकें पढ़ी हैं। वे हजारों साहित्यिक कहे जाने वाले लेखकों से बेहतर थे। मेरे पास उन की आज एक भी पुस्तक नहीं है। लेकिन चाहता हूँ कि उन की सारी पुस्तकें मेरे पास हों जिन्हें मैं गाहे-बगाहे पढ़ता रहूँ। मेरी आने वाली पीढ़ियाँ भी पढ़ें। पिछली बार मेरठ मूल के ब्लागर खुशदीप से बात हुई थी कि मैं उन की तमाम पुस्तकें कहाँ से प्राप्त कर सकता हूँ। लेकिन अभी तक कोई उत्तर नहीं मिला। उन के जासूसी उपन्यास भी सामाजिक राजनैतिक चेतना से भरपूर होते थे।
जवाब देंहटाएंmere pas un ki ek pustak hai
हटाएंsaat khuni nam ki katab hai mere pas pata nhin kab ki 25 sal se jiada sambhal ke rakhi hai
हटाएं21 april se 24 april tak maine sharma ji k 30 upnyas prapat kar liy jin menpichas sundari,doosra taj mahal, neele ghode ka sawar,panchvin bahu,jagat ki bahrat yatra,adi
हटाएंab mere pas om parkash sharma ji ke laghbhag 25 upnyas hai jin men pishach sundari,doosra taj mahal,lakhnow hatyakand, jadugarni, jaalsaj, jagat aur jaalsaj, jagat istambul me, adi
हटाएंI shall be grateful if you can xerox and send me all the novels of Om Prakash Sharmaji. I shall pay the xerox and courier charges. I have only one of his novel: Doosar Tajmahal. My email address is pannalal_at_usa.net. Please note that _at_ is for @ to avoid the spam.
हटाएंSharma ji se jude sansmaran padhane ke liye aabhar.. maithili gupt ji ne bhi rochak jaankari di aabhar.
जवाब देंहटाएंf}osnh th]
जवाब देंहटाएंiz;kl dj jgk gwa fd firk th ds miU;kl ‘kh?kz gh baVjusV ij muds iz’kaldks ds fy, miyC?k djk ldwaA
ohjsUnz ‘kekZ
Virendraji,
हटाएंDo you have any Rajesh & Father Williams novels where Rajesh is chasing Williams?
If yes, Please e-mail me at below:
subodh_ruia@yahoo.com
subodhlumar.ruia@gmail.com
वीरेन्द्र शर्मा जी की कृतिदेव में टिप्पणी यह है -
जवाब देंहटाएंद्विवेदी जी,
प्रयास कर रहा हूं कि पिता जी के उपन्या स शीघ्र ही इंटरनेट पर उनके प्रशंसकों के लिए उपलब्घ) करा सकूं।
वीरेन्द्र शर्मा
Ravi Ji,
हटाएंAgar aisa ho sakta hai to bahut abhar hoga apka, Mein Meerut me Sharmaji se mila tha shayad 1996 ka saal tha. Unke putra ki shaadi. Uske baad koi khwaish baaki nahin.
Atul Sharma 9873754241
Ravi ji Namaskar,
हटाएंI am also trying to make available the OPS novels on the net. I have also created a website- omprakashsharma.com. Could you please provide me the contact number of Shri Virendra Sharma ji?
Thankyou
yours sincerely
Ramakant Mishra
Ravi Ji,
हटाएंNamaskar,
I am still waiting for your reply. could you please?
yours sincerly,
Ramakant Mishra
ramakant63@gmail.com
रमाकान्त मिश्रा जी,
हटाएंवीरेन्द्र जी ने अपनी टिप्पणी में अपना डाक का पता दिया है. ईमेल या फ़ोन नंबर नहीं है मेरे पास. उनकी निम्न टिप्पणी में अंत में उनका डाक का पता है. एकाध पत्र उन्हें लिख देखें. शायद जवाब आ जाए.
सादर,
रवि
गुप्ता जी,
जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा ‘मेरे पिता’ के विषय में श्री यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र जी के लिखे लेख को इन्टरनेट पर पोस्ट करने के लिए मैं अपने परिवार की ओर से आपका आभारी हूं। शर्मा जी से सम्बन्धित और जानकारियां मैं शीघ्र ही आपसे साझा करुंगा ।
इस लेख के शीर्षक के बारे में मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि षर्मा जी ने बौनों का देश नाम से कोई उपन्यास नहीं लिखा है। अगर आप बौनों का देश हटा कर सांझ का सूरज शीर्शक में जोडेंगे तो मैं आभारी रहूंगा। इस लेख में वर्णित उनके पात्र विक्रान्त के बारे में भी मैं कहना चाहूंगा कि यह पात्र शर्मा जी का पात्र नहीं है । यह पात्र शर्मा जी के नाम से नकली उपन्यास लेखकों द्वारा गढा गया पात्र है। शर्मा जी के रचे गये लोकप्रिय पात्र थे राजेश, जयन्त, जगत, जगन, गोपाली इत्यादि। यहां यह कहना दिलचस्प होगा कि शर्मा के नाम से इतने नकली उपन्यास प्रकाशित हुए हैं कि यह एक विश्व रिकार्ड हो सकता है।
वीरेन्द्र शर्मा
74, कल्याण नगर, मेरठ।
महोदय, मैं कई वर्षों से जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा जी का उपन्यास "पी कहाँ ढूढ रही हूँ पर कही नहीं मिला क्या आप इसमें मेरी मदद कर सकते हैं? मैं बहुत आभारी रहूँगी.
जवाब देंहटाएंप्रकाश टाटा आनन्द
वीरेन्द्र शर्मा जी से अनुरोध है हमें बतायें कि ओम प्रकाश शर्मा जी के उपन्यासों के बारे में जानकारी कहाँ से मिलेगी और पुरानी प्रतियाँ कहाँ से प्राप्त की जा सकती है।
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लाग पर आने की कृपा करें
http://sanyogviyog.blogspot.com
वीरेन्द्र जी का उत्तर पढ़ कर अच्छा लगा। मैं भी तलाश में हूँ, बाजार के कुछ पुराने पुस्तकालय और फुटपाथ पर उन की पुस्तकें तलाश कर रहा हूँ ताकि सहेज सकूँ। वैसे उन की बहुत सी पुस्तकों का नए कलेवर के साथ पुनर्प्रकाशन संभव है। आर्थिक रूप से भी यह लाभदायक हो सकता है। उन के कुछ पात्रों को ले कर कार्टून स्ट्रिप भी बनाई जा सकती हैं। यदि काजल कुमार जी ध्यान दें तो इस काम को कर सकते हैं।
जवाब देंहटाएंi have read om prakash sharma ji's " saanjh hui ghar aaye" when i was a kid but i have lost it somewhere.. it was the best book i have ever read..
जवाब देंहटाएंits been 5 years am again trying to buy that book but am not getting it.. it would b really nice if someone can tell me that where can i get that book.. i would be thankful.. plz reply..
Shrimati Prakash Tata Anand se kiye waayde ke anusaar mein 'Pee Kahan' unhe uplabdh kara diya hai. Agar RACHNAKAAR ke sanchaalak chahen to ye upanyaas Rachnakaar par bhi uplabdh kara sakte hain. Virendra Sharma, Meerut
जवाब देंहटाएंवीरेन्द्र शर्मा जी,
जवाब देंहटाएंआपके फीडबैक हेतु हार्दिक धन्यवाद. रचनाकार पर ओमप्रकाश शर्मा जी की यह किताब प्रकाशित करने पर हमें गर्व होगा. कृपया उस किताब की डिजिटल प्रति - वर्ड / पेजमेकर / पीडीएफ में हमें उपलब्ध करवाएँ, और हम उन्हें तत्काल ही प्रकाशित करेंगे.
सादर,
रवि
डबल ख़ास पोस्ट! वाह! यादें ताज़ा हो गयीं!
जवाब देंहटाएंईमेल से प्राप्त एक टिप्पणी -
जवाब देंहटाएंDear Sir,
I found your blog comment on this blog post: http://www.rachanakar.org/2006/01/blog-post_10.html where you have written that your father was the respected writer, Shri Om Prakash Sharma. I am very happy to make your acquaintance.
I'm a translator from Hindi to English, specializing in 'Jasoosi Upanyas' - I've translated two of Surender Mohan Pathak's novels into English for the publishing house Blaft, and these have been quite successful (see http://www.thehindu.com/arts/books/article247890.ece as an example).
For a long time now I have been hearing of Shri Om Prakash Sharma's pioneering role in Hindi thrillers, but partly because Hindi books these days are not very widespread, and partly because publishers like to focus on the newest writers, there was no way to get any of Shri Sharma's book to read and propose for translation.
Would it be possible to get some of Shri Sharma's jasoosi books to evaluate for translation into English? I am more than willing to pay for the cost of the books and the courier. The real purpose of this is to introduce the books to a new generation of readers, and also to spread them to readers in other countries. Rest assured, the royalties of any such work would be split fairly with the family/copyright holders.
Awaiting a positive response,
Yours,
Sudarshan
--
-------------------------
Sudarshan Purohit
My Blog : http://connectionmachine.blogspot.com
Oh wow...Om Prakash Sharma Ji was my favorite writer during high school days. Rajesh, Jayant jagat..how can I forget. I had such a unique talent that he wrote his stories in a mesmerizing manner. I am just amazed with the amount of writing he did but everything still was so good and popular. His Jasoosi novels were like social novels with a gentle message of love and humanity.
जवाब देंहटाएंThanks for bringing so many old memories.
Ashok Sharma
San Francisco
ashok ji maine bhee un ke 1966 ke bad sabhi naval padhe hai aur bade achhe lagte the,vakiya hi vo janpriya upnyas samrat the.
हटाएंOm prakash shram ji ke bare mein Yadvendra sharma chandra ji ka sansmaran padha, bahut hi achchha tha, main Virendra Sharma ji se janana chahata hoon ki Om ji ki purani kitaben kahan se mil sakengi.
जवाब देंहटाएंRakesh Kumar Vyas
Indore
05-03-2012
OM PARKASH JI KE BOOKS MELANEY KA ADRESS JA MEEL JAAY TA MERA KO BE BATA DENA OM PARAKSH JI KA ME BE SARI BOOKS PADANA BALA AAK PATHK RAHA HU MERA PAAS SARI BOOKS THE PER MERA USA JANNA KA BAD SARI BOOKS KUSH LOG JEES KA PAAS GEY AAEY HE NEHI JADDI MEEL SAKA TO BAHUT AASA LEGA GAMERA E MAIL ADRESS HA
हटाएंmahazans@yahoo.com thanks
Sharma ji par Yadvendra ji ka sansmaran achchha laga, Virendra sharma ji se anurodh hai ki batayen ki Om ji ki purani pustaken kahan se mil sakati hain.
जवाब देंहटाएंIf any one has Rajesh, Jagat, Jayant, Gopali, Father Williams series of novels, please e-mail me in any format.
जवाब देंहटाएंRegards
Subodh Ruia
Dubai
e-mail: subodh_ruia@yahoo.com
subodh ruia ji ap ko email kari par no delivery ka uttar aya
हटाएंआदरणीय वीरेन्द्र जी और रविभाई सा.
जवाब देंहटाएंमेरे पिताजी भी शर्माजी के बहुत बड़े प्रशंसक हैं, घर पर कोई १००-१५० उपन्यास थे सब के सब शर्माजी के ( अब एक भी नहीं है)। हमें पढ़ने की इजाजत नहीं थी लेकिन छुप - छुप के सब को पढ़ा। जासूसी उपन्यासों के अलावा जो अन्य उपन्यास हैं वे मुझे बहुत पसन्द आए।
मुझे सबसे ज्यादा पसन्द आया " साँझ हुई घर आये"। जासूसी इसलिए पसन्द आते थे क्यों कि "वेद प्रकाश शर्मा के (विजय) विकास की तरह वे अपराधियों को ब्लेड से चीर कर कपड़ों को नहीं सुखाते है।
मैने अपने ब्लॉगर के प्रोफाइल में भी इस पुस्तक का नाम लिखा है। इनके अलावा "नया संसार" "पिशाच सुन्दरी" आदि भी।
इन तीनों उपन्यासॊं को बरसों से खोज रहा हूँ अगर मुझे मिल जाये तो मैं आभारी रहूंगा! अगर वीरेन्द्र जी से ये पुस्तकें मिल जाये किसी भी प्रारूप में तो उन्हें नेट पर प्रकाशित करने के लिए टाईपिंग का सहयोग करने के लिए अपना सहयोग देना चाहूंगा।
pichas sundari hai mere pas neeli ghodi ka savar,dusra tajmahal bhee
हटाएंdear sir i m from chd and read all om prakash sharmaji's vikrant novel and once again i want to read these novels plese if any body have paperback or pdf tell me on my email.
जवाब देंहटाएंsantinhimalya@gmail.com
ap ne jo likha hai us ke anusar to ap ne nakli navl padhe hain, asli navlon par ops ki photo hoti thee.
हटाएंsubhashchandar azadbharti hun ekela subhassh chander nahin
हटाएंI have read around 100 novels of Om Prakash Sharmaji. Now, I have only one novel: "Doosara Tajmahal". I have read it at least 20 times. Now, I do not have any other novel of Om Prakash Sharmaji (so managing with Shidny Shaldon). If anybody has any novel of Om Prakash Sharmaji, please xerox and send to me, I shall pay the charges. My email address is pannalal_at_usa.net. Just put _at_ for @ to avoid spam.
जवाब देंहटाएंshriman pannalal ji main ap ko 25 nvlon ki photocopy bej sakta hun . ap payment kaise bhejengy.my email is scabab@gmail.com par jabab dene ka kashat karna
हटाएंi have several novels of O P Sharma like khoon kee das boonde, pishach sundry, pishach sundri kee vaapsee. jagat international.shashaan kee cheekhen and many others . But all of them are very old and can not be xeroxed .tell me a way to share them with the fans of sharma jee
हटाएंswaroop ji pahle to aap un comics ki photo le sakte hai.. yaa mobile me scan karne ki suvidha kaa fayda uthaa kar.
हटाएंOm Prakash Sharma was my favourite writer in my school days (1962-72 ) I had all his novels in my home library .His novels Khoon Ki Dus Boonden , Neelgadhi Ka Rahasya , Pee Kahan are still fresh in my mind . I had an opportunity to personally see him at Meerut on june 1969 . The sweet memories are unforgettable even at my age of 66 years . His simplicity and childlike behaviour will remian in my heart forever . Rajesh was my favourate character at that time - Dr Bhagender
जवाब देंहटाएंआप सभी ओम प्रकाश शर्मा जी के प्रशंसकों को सादर प्रणाम।
जवाब देंहटाएंउपर्युक्त विभिन्न लोगों की टिप्पणियों में शर्मा जी के उपन्यासों की अनुपलब्धता का जिक्र है तथा लगभग सभी लोगों ने उनके उपन्यासों को पढ़ने की इच्छा व्यक्त की है। मैं भी शर्मा जी का एक अदना सा प्रशंसक हूं तथा उनके सम्मान में अपनी श्रद्धांजलि स्वरूप एक वेबसाइट www.ormprakashsharma.com प्रारंभ की है। इस वेबसाइट के लिए शर्मा जी के तथा उनके परिजनों एवं मित्रों के चित्रों की आवश्यकता है। मेरा आप सभी से करबद्ध निवेदन है कि यदि आपके पास शर्मा जी के कोई चित्र हैं तो उन्हें contact@omprakashsharma.com पर ई-मेल करें। आपकी प्रतिक्रियों एवं सुझावों की भी नितांत आवश्यकता है।
धन्यवाद।
रमाकान्त
Mere pas Shri Om Prakash Sharma ke Do Novel Hain. 1. Jhansi Road 2. Farishte Ki Maut Rajpal Singh Pal Engineer BSNL J/F-279 Bhagirathi Kunj, Ganganagar, Meerut UP 250001 Mob. No. 9412783074
जवाब देंहटाएंबेहतरीन संस्मरण। उम्मीद है ऐसे संस्मरण और आते रहेंगे।
जवाब देंहटाएं